________________ 220 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी रहित श्मशान,शून्यगृह, उद्यान,लतामण्डप, वृक्ष का तलभागअथवा गिरिगुफा इत्यादि एकान्त स्थल हो' परन्तु साध्वियों को धर्मशाला, टूटा-फूटा मकान, वृक्षमूल और खुले आकाश में नहीं रहना चाहिए क्योंकि ऐसे स्थान पर बलात्कार की सम्भावना रहती है। 6. परकृत स्थल : उपाश्रय ऐसा हो जो गृहस्थ के द्वारा अपने उपयोग के लिए बनाया गया हो, साधु के निमित्त से न बनाया हो / यदि साधु के उपयोग के लिए ही बनाया हुआ हो तो गृह-निर्माण के समय होने वाली प्राणी-हिंसा का दोष साधु पर भी लगेगा। इस प्रकार उपाश्रय में ठहरते समय साधु को उपर्युक्त सभी बातों का ध्यान रखना चाहिए। ऐसा न करने पर उसके संयम-पालन में बाधा आ सकती है और वह कई प्रकार के पापों का हिस्सेदार भी बन सकता है। (ङ) साधु का आहार : मानव शरीर के लिए भोजनएक अनिवार्य तत्त्व है। भोजन से ही इन्द्रियां शक्ति ग्रहण करके अपने-अपने कार्य करने के सामर्थ्य को ग्रहण करती है। इसीलिए साधु की दिन-चर्या में तृतीय प्रहर भोजन-पान के लिए नियत किया गया है। भोजन के विषय में निम्नलिखित बातें विचारणीय हैं-- (अ) साधु को आहार ग्रहण करने के छह कारण : साधु बल, आयु, स्वाद, शरीर की पुष्टि और तेज की प्राप्ति के लिए आहार ग्रहण न करे / मोक्षार्थी साधु निम्नोक्त छह कारणों से ही आहार ग्रहण करे (1) क्षुधा-वेदना की शान्ति के लिए : यद्यपिसाधु के लिए क्षुधापरीषहजय का विधान है, परन्तु इस प्रकार का विधान तप करते समय अथवा निर्दोष आहार न मिलने की अवस्था में ही है। अन्यथा क्षुधा की वेदना होने पर न तो मन शान्त हो सकता है और न ही किसी भी प्रकार की क्रिया के सम्पादन के लिए सामर्थ्य प्राप्त हो सकता है। अतः क्षुधा-वेदना की शान्ति के लिए साधु को आहार ग्रहण करना चाहिए। 1. सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्खमूले व एगओ। पइरिक्के परकडे वा वासं तत्थभिरोयए।। उ० 35.6 तथा दे०-२.२०; 18.4; 20.4:25.3 2. दे०--बृहत्कल्प, 2011-12 3. पइरिक्के परकडे वा / उ० 35.6 4. मूला० 6.481 5. वेयण- वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए छठ्ठ पुण धम्मचिन्ताए।। उ० 26.33