Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 257
________________ साधु परमेष्ठी 221 (2) गुरू सेवार्थ : गुरू आदि की सेवा करना (वैयावृत्त्य) एक प्रकार का तप है। यदि भोजन किया जाए तो शरीर में सामर्थ्य न होने से गुरू-सेवा भी नहीं हो सकेगी। अतः गुरूजनों की सेवा करने के लिए भोजन ग्रहण करना आवश्यक है। (3) ईर्यासमिति के पालनार्थ : आहार ग्रहण न करने पर आंखों की ज्योति क्षीण हो जाती है। ऐसी स्थिति में गमनागमन करते समय ईर्यासमिति का पालन नहीं हो सकेगा। अतः ईर्यासमिति के सम्यक् परिपालन के लिए साधु को भोजन ग्रहण करना चाहिए। (4) संयम पालनार्थ : / वस्तुतः संयम के होने पर ही सब प्रकार के व्रतों को धारण किया जा सकता है। संयम की रक्षा भोजन-ग्रहण के बिना नहीं हो सकती है। अतः साधु संयम की रक्षा के लिए आहार ग्रहण करे | (5) जीवन रक्षार्थ : जीवन के रहने पर ही संयम पालन हो सकता है और भोजन के बिना जीवन भी नहीं चल सकता / अतः साधु जीवन-यापन के लिए भिक्षा लेते हैं।' (6) धर्म चिन्तनार्थ : धर्मशास्त्रों का अध्ययन, मनन, चिन्तन आदिधार्मिक क्रियाओं को करने के लिए शरीर का सुस्थिर होना आवश्यक है / ऐसा तभी हो सकता है जब भूख प्यास आदि की वेदना न हो। अतः धार्मिक क्रियाओं के संपादन के लिए भी आहार ग्रहण करना आवश्यक है। इस प्रकार साधु उक्त छह कारणों से ही भोजन ग्रहण करे / इन सबके मूल में संयम का पालन करना ही मुख्य कारण है। (आ) साधु को आहार ग्रहण न करने के छह कारण : उपर्युक्त भोजन ग्रहण करने के छह कारणों के रहते हुए भी यदि निम्नलिखित छह कारणों में से कोई एक भी कारण उपस्थित हो जाए तो साधु को भोजन का त्याग कर देना चाहिए। उसे पुनः तब तक भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए जब तक वह आहार ग्रहण न करने का कारण दूर न हो जाए। आहार ग्रहण न करने के कारण हैं-- 1. दे०-दश० 6.3.4 2. आयके उवसग्गे तितिक्खया बम्भेदगुत्तीसु। पाणिदया तवहेउं सरीर-वोच्छेयणट्ठाए।। उ० 26.35

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