________________ 230 'जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी यदि आलोचना करने में क्रम भंग हो तो उसका फिर प्रतिक्रमण करना चाहिए।पुनः शरीर को स्थिर बनाकर, निरवद्यवृतिऔर शरीर-धारण के प्रयोजन का चिन्तन करना चाहिए। इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को नमस्कार-मन्त्र के द्वारा परिपूर्ण कर जिन की संस्तुति करे-गुणकीर्तन करना चाहिए। उसके बाद स्वाध्याय कर क्षणभर के लिए विश्राम करे। यदि वह मंडली-भोजी साधु है तो वह तब तक विश्राम करे जब तक मंडली के दूसरे साधुगण न आ जाएं। विश्राम करते हुए साधु को ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि यदि आचार्य और अन्य साधुगण मुझ पर अनुग्रह करें, मेरा भोजन ग्रहण करें तो मैं धन्य हो जाऊं। फिर प्रेमपूर्वक साधर्मिक मुनियों को भोजन के लिए निमन्त्रित करना चाहिए। उसके निमन्त्रण को स्वीकार करके यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो उसके साथ भोजन करे / यदि नहीं तब स्वयं अकेला ही भोजन करे।' साधु खुले पात्र में भोजन करे / इससे भोजन में कोई जीव-जन्तु पड़ा हुआ हो तो भली-भांति देखा जा सकता है |भोजन यतनापूर्वक करना चाहिए अर्थात् भोजन करते समय नीचे नहीं डालना चाहिए। साधु को अरसया विरस, व्यंजनसहितया व्यंजनरहित,आर्द्र या शुष्क, जैसा भी आहार भिक्षा में मिले उसे मघुघृत की भांति खाना चाहिए, उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए तथा पात्र में किञ्चित् मात्र भी अन्न लगा हुआ नहीं रहना चाहिए। कदाचित् सरस आहार पाकर उसे आचार्य आदि को दिखाने पर वे स्वयं न ले लेंगे-इस लोभ से भिक्षा को नहीं छुपाना चाहिए। ऐसे अपने ही स्वार्थ को प्रमुखता देने वाला मुनि बहुत पाप का भागीदार होता है, वह निर्वाण-प्राप्ति का अधिकारी भी नहीं होता। एकान्त में अच्छा-अच्छा भोजन कर, अपना उत्कर्ष दिखाने के लिए मण्डली में नीरस आहार भी उसे नहीं करना चाहिए क्योंकि पूजा, यश तथा मान-सम्मान का इच्छुक मुनि अत्यधिक पाप का ही अर्जन करता है। 1. दश०५.१.८७-६७ 2. वही, 5.1.66 3. वही, 5.1.67-68 4. वही, 5.2.1 5. वही, 5.2.31-32 6. वही, 5.2.33-35