________________ 232 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी . (अ) बैठने की विधि : मुनि को संयमपूर्वक बैठना चाहिए। इससे अभिप्राय है कि मुनि बैठने पर हाथ-पांवों को बार-बार न सिकोड़े अथवा न फैलाए / इस प्रकार करना उसे शोभा नहीं देता / अतः पालथी लगाकर संयमशर्वक बैठना चाहिए। मुनि आसन्दी, पर्यंक, मंच एवं वस्त्र से गूंथे हुए आसन आदि पर न बैठे। इनमें सूक्ष्म जीव हो सकते हैं तथा इस प्रकार की छिद्रयुक्त वस्तुओं में जीवों का प्रतिलेखन करना बड़ा कठिन होता है / अतः यथायोग्य आसन पर बैठना ही समुचित है। मुनि पृथ्वी पर बिना कुछ बिछाए न बैठे / सचित भूमि पर उसे बैठना बिल्कुल ही निषिद्ध है। उसे अचित भूमि पर भी अच्छी प्रकार प्रमार्जन एवं प्रतिलेखन कर और जिसकी वह भूमि हो उससे अनुमति लेकर ही बैठना चाहिए। अतः आज्ञा तथा समुचित आसन लेकर ही बेठना विहित है।। गुरु के पास आलीनऔर गुप्त होकर बैठे। जो गुरु के पासनअतिनिकट और न अतिदूर बैठे, वह आलीन कहलाता है तथा जो मन से गुरु के वचन में दत्तावधान और प्रयोजनवश बोलने वाला होता है, उसे गुप्त कहा जाता है।" अतः शान्त एवं जागरूक बैठना हितकर होता है। आचार्य के बराबर, आगे पीछे तथा उसके ऊरु से अपना ऊरु सटाकर न बैठे। पार्श्वभाग के निकट बराबर बैठने से शिष्य द्वारा समुच्चारित शब्द सीध गुरु के कानों में प्रवेश करता है जिससे गुरु की एकाग्रता भंग हो सकती है। गुरु के आगे अत्यन्त निकट बैठने से अविनय होता है तथा दर्शनार्थियों के गुरु-दर्शन में बाधा आती है। पीछे बैठने से वह गुरु के मुख पर विद्यमान भाव और इंगित को समझ नहीं पाता। गुरु के ऊरु से ऊरु सटाकर बैठने से भी अविनय एवं अशिष्टता प्रकट होती है। अतः किसी भी प्रकार से असभ्य एवं अविनयपूर्ण ढंग से नहीं बैठना चाहिए। (ब) खड़े रहने की विधि : __मुनि प्रयोजनवश जब गृहस्थों के घर जाए तो उसे वहां संयमपूर्वक खड़े रहना चाहिए तथा ध्यान रखना चाहिए कि वह वहां पानी तथा मिट्टी 1. जयं चिट्ठे / दश० 4.8 2. वही, 3.5.. 6.53-55 3. वही, 8.5 4. वही, 8.44 5. दे०-वही, टिप्पण, 8.122 6. दश०.८.४५ 7. जयं चरे। वही, 4.8