________________ 224 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी न करते हुए शरीर की स्थिति के लिए परिमित भोजन ग्रहण करना चाहिए।'' सरस आहार ग्रहण करने से इन्द्रियां कामादि भोगों के सेवन के लिए उद्दीप्त हो जाती हैं जिससे साधु पक्षियों से पीड़ित सुस्वादु फल वाले वृक्ष की तरह पीड़ित हुआ संयम का पालन नहीं कर पाता। प्रमाण से अधिक भोजन करने से प्रचुर इन्धन वाले वन में उत्पन्न हुई दावानल की तरह इन्द्रियाग्नि (=कामवासना) शान्त नहीं होती। साधु के जीवन-निर्वाह के लिए नीरस आहार के विषय में आगम में कुछ संकेत मिलते हैं जैसे-स्वादहीन तथा ठण्डा भोजन, पुराने उड़द, मूंग, मूंग का छिलका, शुष्क चना, बेर का चूर्ण, चावल आदि का उबला हुआ पानी, जौ का भात एवं शीतल कांजी इत्यादि। साधु को इस प्रकार नीरस आहार ग्रहण करना चाहिए, परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वह घी, दूध आदि सरस आहार बिल्कुल ही न लें। इसका मात्र अभिप्राय यही है कि साधु सरस भोजन में आसक्ति न रखे, उसे गृहस्थ के पास जैसा भी सामान्य आहार मिले, वह उसे ही ले लेवे। नीरस भोजन को देखकर उसकी उपेक्षा न करे / इसीलिए साधु को लाभालाभ में हमेशा सन्तुष्ट रहने को कहा गया है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि साधु के लिए सब प्रकार का आहार एषणीय नहीं है। साधु स्वाद अथवा शरीर-पुष्टि के लिए आहार ग्रहण नहीं करते बल्कि मात्र जीवन-यापन एवं संयम-पालन के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं / वे सरस आहार में रूचि न रखते हुए जैसा भी एषणीय आहार मिले उसे ग्रहण कर लेते हैं और अनेषनीय आहार का सर्वथा त्याग करते हैं! (उ) भिक्षाचर्या : साधु जब आहार आदि ग्रहण करने के लिए विचरण करता है, उसे 1. दे०-उ०२.३६, 811 2. रसा पगामं न निसेवियव्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं। दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति दुमं जहा साउफलं व पक्खी।। वही, 32.10 3. जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ। एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो न बम्भयारिस्स हियाय कस्सई / / उ०३२०११ 4. पन्ताणि चेव सेवेज्जा सीयपिण्डं पुराणकुम्मासं। अदु बुक्कसं पुलागं वा जवणट्ठाए निसेवए मंथु / / वही, 8.12 आयानगं चेव जवो दणं च सीयं च सोवीर-जवोदगं च। नो हिलए पिण्डं नीरसं तु पन्तकुलाइं परिवए सा मिक्खू / / वही, 15.13 5. लाभालाभम्मि संतुढे पिण्डवायं चरे मुणी। वही. 35.16