Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 247
________________ 211 साधु परमेष्ठी 2. नैषेधिकी : बाहर से उपाश्रय के अन्दर आते समय निसीहियं ऐसा कहना नैषेधिकी है। यह इस बात का सूचक है कि प्रयोजन पूरा होने पर साधु को पुनः स्थित हो जाना है। 3. आपृच्छना: गुरु आदि से अपना कार्य करने के लिए पूछना याआज्ञा लेनाआपृच्छना कहलाता है। इससे आज्ञा-अधीनता की पुष्टि होती है। 4. प्रतिपृच्छना: दूसरे के कार्य के लिए गुरु से पूछना, अनुमति लेना प्रतिपृच्छना है। 5. छन्दना: पूर्वग्रहीत द्रव्यों के लिए गुरु आदि को आमन्त्रित करना छन्दना है। 6. इच्छाकार : / दूसरों का कार्य अपनी सहज अभिरुचि से करना और अपना कार्य करने के लिए दूसरों को उनकी इच्छानुकूल विनम्र निवेदन करना इच्छाकार कहलाता हैं सामान्यतः मुनि के लिए आदेश की भाषा विहित नहीं है। पूर्व दीक्षित साधु को अपने से बाद में दीक्षित साधु से कोई कार्य कराना हो तो इच्छाकार का प्रयोग करना अनिवार्य है। 7. मिथ्याकार : किसी प्रकार का प्रमाद हो जाने पर उसकी निवृत्ति के लिए आत्म-निन्दा करना मिथ्याकार कहलाता है। इससे अभिप्राय यही है कि प्रमाद को छिपानें के लिए साधु के मन में कोई आग्रह नहीं होना चाहिए बल्कि सहज भाव से अपने प्रमाद का प्रायश्चित कर लेना चाहिए। 8. तथाकार : गुरुजनों के वचनों को सुनकर 'तहत्ति' अर्थात् जैसे आपकी आज्ञा ऐसा कहकर आदेश को स्वीकार कर लेना तथाकार है। इससे गुरुजनों के प्रति सम्मान प्रदर्शित होता है। 9. अभ्युत्थान : गुरुजनों की पूजा अर्थात् सत्कार के लिए आसन से उठ कर खड़े हो जाना अभ्युत्थान कहलाता है। इस प्रकार से औपचारिक विनय का पालन होता है।

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