________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 214 और भगवान महावीर की परम्परा के शिष्यों में 'सान्तरोत्तर' (वस्त्र सहित)और 'अचेल' (वस्त्र रहित) के भेद को लेकर एक परिचर्चा हुई थी। इसमें पार्श्वनाथ की परम्परा के प्रधान शिष्य केशी श्रमण महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम से पूछते हैं कि __ महामुनि वर्द्धमान ने जो आचार-धर्म की व्यवस्था की है, वह अचेलक है और महामुनि पार्श्व ने जो यह आचारधर्म की व्यवस्था की है, वह वर्ण आदि से विशिष्ट तथा मूल्यवान् वस्त्र वाली है। जब हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो इसभेद का क्या कारण है? मेधावी, लिंग के इन दो प्रकारों में तुम्हें कैसे संशय नहीं होता है? केशी के ऐसा कहने पर गौतमने इस प्रकार कहा-विज्ञानद्वारा यथोचित जानकर ही धर्म के साधनों-उपकरणों की अनुमति दी गई है। लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन यात्रा को निभाना और 'मैं साधु हूं' ऐसा ध्यान आते रहना, वेष धारण के इस लोक में ये प्रयोजन हैं / वास्तव में दोनों तीर्थंकरों का एक ही सिद्धान्त है कि मोक्ष के वास्तविक साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं।' इस संवाद का आशय यही है कि वस्त्र सम्बन्धी भेद भगवान् महावीर ने लोगों की बदलती हुई सामान्य प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए किया है। लोगों की बदलती हुई प्रवृत्ति को बतलाते हुए लिखा है कि प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथ के समय में मनुष्य सरल प्रकृति के साथ मूर्ख (ऋजु-जड़) थे। चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर के समय में मनुष्य कुटिल प्रकृति के साथ मूर्ख (वक्रजड़) थे तथा इन दोनों तीर्थंकरों के मध्यकाल अर्थात् दूसरे से लेकर तेइसवें तीर्थंकर के काल में मनुष्य सरल प्रकृति के साथ व्युत्पन्न (ऋजु-प्राज्ञ) थे। इससे यही अभिप्राय है कि मध्यकाल के मनुष्य सरल व व्युत्पन्न होने के कारण धर्म को आसानी से ठीक-ठीक समझ लेते थे तथा उसमें कुतर्क आदि न करके यथावत् उसका पालन भी करते थे। इसी कारण मध्यकाल में वस्त्र आदि के नियमों में शिथिलता दी गई थी, परन्तु आदिनाथ तथा महावीर के काल में व्यक्तियों के अल्पज्ञ होने के कारण यह सोचकर कि कहीं वे वस्त्रादिक में रागबुद्धि न करने लगे, इसलिए वस्त्र आदि के विषय में प्रतिबन्ध लगा दिया गया किन्तु उनकी अचेल व्यवस्था एकान्तिक आग्रहपूर्ण नहीं थी। गौतम ने केशी से जो कहा, उससे यह स्वयं सिद्ध है। जो निम्रन्थ निर्वस्त्ररहने में समर्थथे, उनके लिए पूर्णतःअचेल (निर्वस्त्र) 1. दे०-उ० 23.26-33 2. दे०-वही, 23.26-27