Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 245
________________ साधु परमेष्ठी 209 28. एकभक्त: / सूर्य के उदय और अस्त गमन काल में तीन मुहूर्तों को छोड़कर अर्थात् सूर्योदय से तीन मुहूर्त बाद और सूर्यास्त से तीन मुहूर्त पहले, मध्यकाल में एक,दो अथवा तीन मुहूर्तों में जो एक बार या एक स्थान में भोजन ग्रहण किया जाता है, उसका नाम एक भक्त है। इसके परिपालन से इन्द्रियजय के साथ इच्छा के निरोधरूप तप का भी लाभ होता है।' साधु के उक्त 27 गुणों व 28 गुणों में मुख्य भेद नग्नता का है, शेष गुण तो मिलते-जुलते ही हैं तथा एक दूसरे में समाविष्ट हो जाते हैं। दिगम्बर परम्परा की यह स्पष्ट घोषणा है कि वस्त्रधारी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता, भले ही वह तीर्थंकर भी क्यों न हो? नग्नता मोक्ष का मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग हैं। अतः आचेलक्य को साधु के मूलगुणों में माना गया है। 6. साधु का आचार : जैनधर्म आचारप्रधान है। आचार को चारित्र भी कहा जाता है | आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्तं खलु धम्मो कहकर चारित्र को ही धर्म बतलाया है। चारित्र के दो प्रकार हैं-एक श्रावकों का चारित्र तथा दूसरा साधुओं का चारित्र / किन्तु निवृत्तिप्रधान जैनधर्म का नैतिक चारित्र साधुओं का चारित्र ही है। __ पञ्च परमेष्ठियों में सबसे नीचे का दर्जा साधुओं का है। साधुधर्म के आचरण से ही सर्वोच्च परमेष्ठी का पद प्राप्त होता है। प्राचीन परम्परा के अनुसार यह विधान था कि साधु को अपने श्रोताओं के सम्मुख सर्वप्रथम साधु धर्म का ही उपदेश देना चाहिए, श्रावक धर्म का नहीं, क्योंकि हो सकता है कि श्रोता उच्च भावना लेकर आया हो और श्रावक धर्म को सुनकर वह उसी में उलझ जाए। पुरूषार्थसिद्धयुपाय के आरम्भ में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने इस विधान का निर्देश करते हुए लिखा है कि 'जो अल्पबुद्धि उपदेशक मुनिधर्म का कथन न करके गृहस्थ धर्म का उपदेश करता है, उस उपदेशक को जिनागम में दण्ड का पात्र कहा है क्योंकि उसने क्रम का उल्लंधन करके धर्म का उपदेश दिया है और उससे अति उत्साहशील श्रोता अस्थान में सन्तुष्ट होकर ठगाया जाता है। 1. दे०- वही, 1.35 2. ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे / / सुत्तपाहुड, गा०२३ 3 प्रवचनसार, 1.7 >> तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।। अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः / अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितः भवति तेन दुर्मतिना / / पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गा० 18.16

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