________________ 208 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 24. क्षितिशयन: जहां पर तृणादि किसी भी प्रकार का संस्तर नहीं है अथवा जिसमें संयम का विघात न हो-ऐसे अल्पसंस्तर से जो सहित है तथा जो प्रच्छन्न है-स्त्री व पशु आदि के आवागमन से रहित है, इस प्रकार के प्रासुक भूमि प्रदेश में दण्ड (काष्ठ) या धनुष के समान एक करवट से सोना, क्षितिशयन कहलाता है।' 25. अदन्तधावन : अंगुली, नख,दातौन, तृण व पत्थर आदिसे दांतों के मैल को न निकालना, यह अदन्तधावन अथवा अदन्तघर्षणा नामक गुण है। इसके परिपालन से संयम की रक्षा के साथ-साथ शरीर की ओर से ममत्व का अभाव होता है। 26. स्थितिभोज : दीवार व खम्बे इत्यादि के आश्रय को छोड़कर, दोनों पावों को बराबर करके अंजलिपुट से दोनों हाथों कीअंगुलियों को परस्पर सम्बद्ध करके स्थित रहते हुए जो तीन प्रकार से विशुद्ध स्थान (अपने पांवों का स्थान, उच्छिष्ट के गिरने का स्थान और परोसने वाले का स्थान) में भोजन ग्रहण किया जाता है, वह स्थितिभोज कहलाता है | अभिप्राय यह है कि साधु किसी दीवार आदि का सहारा न लेकर, दोनों हाथों की अंजलि को ही पात्र बनाकर उससे इस प्रकार आहार ग्रहण करता है कि उच्छिष्ट आहार नाभि के नीचे न जा सके / भोजन करते समय दोनों पांव चार अंगुल के अन्तर से सम रहने चाहिए, अन्यथा अन्तराय होता है। इस गुणसेइन्द्रिय-संयमवप्राण-संयमदोनों का परिपालन होता है। 27. अस्नान : स्नान का परित्याग करने से यद्यपि समस्त शरीर जल्ल, मल्ल और स्वेद से आच्छादित रहता है, पर निरन्तर ध्यान-अध्ययन आदि में निरत रहने वाले साधु का उस ओर ध्यान न जाना तथा उससे घृणा न करके उसे स्वच्छ रखने का रागभाव न रहना, यह साधु का अस्नान नामक गुण है। इससे भी संयम का पालन होता है। जल्ल सर्वागीण मल का द्योतक है। शरीर के एक देश में होने वाले मैल को मल्ल और पसीने को स्वेद कहते हैं। 1. दे०-मूला० वृ० 1.32 2. वही, 1.33 3. वही, 1.34 4. वही, 1.31