________________ 206 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 21- वचनसमाहरण : वचन को स्वाध्याय में भली-भांति संलग्न रखना वचनसमाहरण है। वचन समाहरण से जीव वाणी के विषयभूत दर्शन के विविध प्रकारों को विशुद्ध एवं विशद करके सुलभता से बोधि को प्राप्त करता है।' 22- कायसमाहरण : काया को संयम की शुद्ध प्रवृत्तियों में संलग्न रखना ही कायसमाहरण है। काया के समाहरण से जीव चारित्र के विभिन्न प्रकारों को विशुद्ध करता है जिससे वह यथारव्यातचारित्र को प्राप्त होकर घातिया कर्मों का क्षय करता है और तत्पश्चात् निखिल दुःखों का अन्त कर वह सिद्ध हो जाता है। 23-25 रत्नत्रयसम्पन्नता : . साधुज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपरत्नत्रय से सम्पन्न होता है। रत्नत्रय का स्वरूप उपाध्याय के गुणों में बतलाया जा चुका है। 26- वेदना अधिसहन : शीत, ताप आदि की वेदना को समभाव से सहन करना ही वेदना अधिसहन है। इससे सहनशीलता का अभ्यास होता है। 27- मरणान्तिक अधिसहन : मृत्यु के समय आने वाले कष्टों को समभाव से सहन करना और ऐसा विचार करना कि ये मेरे कल्याण के लिए ही हैं, मरणान्तिक अधिसहन है। इस प्रकार साधु 27 गुणों के धारक होते हैं. इनका पूर्णतया पालन करते हैं / परन्तु दिगम्बर परम्परा में साधु के 28 मूलगुण बतलाए गए हैं:1-5 पांच महाव्रत: साधु अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का पूर्णतःपालन करते हैं। अहिंसा आदि का वर्णन पहले किया जा चुका है। 6-10 पांच समितियां साधु पांच समितियों का भी पालन करते हैं। आचार्य के गुणों में इस विषय पर प्रकाश डाला जा चुका है। 1. वही, 26.58 2. दे०-वही 26.56 3. दे०-प्रस्तुत शेध प्रबन्ध, परिच्छेद-५, पृ० 222-231 4. वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमणहाणं।। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च / / प्रवचनसार, 3.8 तथा मिलाइये- मूला० 1.2-3