Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 243
________________ साधु परमेष्ठी 207 11-15 पञ्चेन्द्रिय निरोध : साधु अपनी पांचों इन्द्रियों का निरोध करते हैं, उन पर विजय पा लेते हैं। 16-21 षडावश्यक : सामायिक, वन्दन,प्रतिक्रमणआदिछहों षडावश्यकों का पूर्व में सम्यक् प्रतिपादन किया जा चुका है।' 22- केशलोंच : सिर और दाढ़ी के बालों को जो हाथों से उखाड़ा जाता है, वह लोंचकर्म कहलाता है / वह उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें दो मासों के पूर्ण होने पर जो लोंच किया जाता है उसे उत्कृष्ट लोंच, तीन मासो के पूर्ण होने पर या उनके बीच में जो लोंच किया जाता है उसे मध्यमलोंच, तथा चार मासों के पूर्ण होने पर जो लोंच किया जाता है, उसे अघन्य लोंच बतलाया गया है। केश-लोंच को पाक्षिक व चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण के दिन उपवासपूर्वक करना विहित है। यद्यपि बालों को केंची या उस्तरा आदि की सहायता से भी काटा जा सकता है, पर उसमें परावलम्बन है क्योंकि उनको दीनतापूर्वक किसी से मागंना पड़ेगा, परिग्रहरूपहोने से उन्हें अपने पास भी नहीं रखा जा सकता। बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह का सर्वथा त्याग करने वाले मुनि का मार्ग पूर्णतया स्वावलम्बनरूप है। बालों के बढ़ने पर उनमें जूं आदिसूद्र जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं जिनके विघात को नहीं रोका जा सकता / बालों के बढ़ने में रागभाव भी सम्भव है। इसके अतिरिक्त लोंच करने में आत्मबल और सहनशीलता भी प्रकट होती है। इन सब कारणों से लोंच को साधु के मूल गुणों में शामिल किया गया है। 23- आचेलक्य: चैल नाम वस्त्र का है। वस्त्र-यह चमड़ा व वल्कल आदि अन्य सब का उपलक्षण है। इसका यह अभिप्राय हुआ कि सूती, रेशमी व ऊनी आदि किसी भी प्रकार के वस्त्र, चमड़े और वृक्ष के वल्कल व अन्य पत्ते आदि किसी से भी जननेन्द्रिय को आच्छादित न करके बालक के समान निर्विकार रहना, यह साधु का आचेलक्य नामक गुण है। भूषण व वस्त्र से रहित दिगम्बर मुद्रा लोक में पूज्य होती है। इसमें लज्जा को छोड़ते हुए किसी से न तो याचना करनी पड़ती है। इस प्रकार वह पूर्णतया स्वावलम्बन का कारण है जिसकी मुनिधर्म में अपेक्षा रहती है। 1. दे०-प्रस्तुत शोध प्रबन्ध, परिच्छेद-४, पृ० 167.-166 2. दे०-मूला०वृ०१.२६ 3. दे०-वही, 1.30

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