________________ 198 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी आचार्य जिनसेन ने भी कहा है कि 'जाति, गोत्र आदि कर्म शुक्ल ध्यान के कारण हैं | जिनमें वे होते हैं वे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कहे जाते हैं, शेष सब शूद्र हैं'।?' अतः ब्राह्मण इत्यादि कोई जन्मसे नहीं होता, कर्म से ही होता है अतः कुल और जाति की शुद्धि दीक्षार्थी के लिए आवश्यक हैं। कुल और जाति के साथ आर्यदेश अथवा सुदेश का भी निदेश हुआ है। जैन सिद्धान्त के अनुसारभरतक्षेत्र कोदोभागों में विभक्त किया गया है-कर्मभूमि और अकर्मभूमि। जिनमुद्रा का धारण कर्मभूमि में ही होता है, अकर्मभूमि में नहीं, क्योंकि वहां धर्म-कर्म की प्रवृत्ति का अभाव है। इस तरह साधु होने के लिए एक निश्चित आत्मिक योग्यता का होना आवश्यक है / उस योग्यता वाले व्यक्ति के लिए ही श्रमणत्व की पात्रता सिद्ध होती है भगवान् महावीर ने इस विषय में कहा है कि केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता है, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं हो जाता तथा कुश का बना चीवर पहनने मात्र से ही कोई तपस्वी नहीं हो जाता हैं। बल्कि समभाव से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य पालन से ब्राह्मण होता है, उत्कृष्ट ज्ञान के धारण करने से मुनि है और कठोर तप करने वाला ही तपस्वी होता है। इनके अभाव में शेष बाह्याचार करना व्यर्थ है। यदि कोई आवश्यकता है तो वह है-मूल संस्कारों में परिवर्तन की। मुनिव्रत ग्रहण कर लेने पर शेष जीवन ही परिवर्तित हो जाता है पहले की अपेक्षा वह अधिक गम्भीर, पवित्र, सुलझा हुआ, शान्त और सद्गुणसम्पन्न हो जाता है। यह परिवर्तन आवश्यक भी है। सिर का मुण्डन तो बाह्यचार मात्र है। इसका होना भी अपेक्षित है किन्तु इससे पहले नौ और मानसिक मुण्डन अनिवार्य हैं वे हैं-श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना एवं स्पर्शेन्द्रियों के विषयों पर रागद्वेष का निग्रह करना तथा क्रोध,मान,माया और लोभको पराजित करना। 1. जाति-गोत्रादि-कर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः / येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः / महापुराण, 74.463 2. भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः / / त०सू०३.१६ 3. न वि मुण्डएण समणो न ओंकारेण बम्भणो। न मुणी रण्णवासेण कुसचीरेण न तावसो।। उ०२५.३१ 4. समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो।। वही,२५.३२ 5. दस मुंडा पण्णत्ता, त जहां सोतिंदियमुंडे, चक्खिदियमुंडे, घाणिंदियमुंडे, जिमिंदियमुंडे, फासिंदियमुंडे, कोहमुंडे, माणमुंडे, मायामुंडे, लोभमुंडे, सिरमुंडे। ठाणं, 10.66