________________ साधु परमेष्ठी 197 शरीर से अपंग न हो, त्याग धर्म के प्रति दृढ़ आस्था रखने वाला हो, प्रतिज्ञा पालन में अटल और आत्म कल्याण की इच्छा से दीक्षा लेकर गुरु चरणों में समर्पित होने के लिए जो तत्पर हो, वही साधु-पद ग्रहण करने के योग्य है।' आचार्य जिनसेन ने भी कहा है जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और बुद्धि सन्मार्ग की ओर है, ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने के योग्य है।२ / (आ) साधु-जिनमुद्रा के योग्य त्रिविध वर्ण : जिनमुद्रा इन्द्र आदि के द्वारा पूजनीय होती है। अतः धर्माचार्यो को प्रशस्त देश, प्रशस्त वंश और प्रशस्त जाति में उत्पन्न हुए ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य को, जो निष्कलंक है अर्थात् ब्रह्महत्या आदि का अपराधी नहीं है तथा उसे पालन करने में समर्थ है, जो बाल और वृद्ध नहीं है, उसे ही साधुत्वा जिनमुद्रा प्रदान करनी चाहिए। उक्त कथन के अनुसार साधु मुद्रा के योग्य तीन ही वर्ण माने गए हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य / शुद्र को इसका अधिकारी नहीं माना गया। पिता की अन्वय शुद्धि को कुल और माता की अन्वय शुद्धि को जाति कहते हैं अर्थात् जिसका मातृ कुल और पितृ कुलशुद्ध है, वही ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य दीक्षा ग्रहण की पात्रता रखता हैं। परन्तु वर्ण का निर्धारण किसआधार पर किया जाए? उत्तराध्ययनसूत्र में यह स्पष्ट रूप से बतलाया गया है कि व्यक्ति कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है तथा कर्म से ही शुद्र होता है। 1. अथ प्रव्रज्याहः आर्यदेशोत्पन्नः, विशिष्टजातिकुलान्वितः, क्षीणप्रायकर्ममलः, तत एव विमलबुद्धिः, दुर्लभं मानुष्यं, जन्ममरणनिमित्तं, संपदश्चपलाः विषया दुःखहेतवः, संयोगे वियोगः प्रतिक्षणं दारुणो विपाकः इत्यवगतसंसारनैर्गुण्यः, तत एव तद्विरक्तः, प्रतनुकषायः, अल्पाहस्यादिः, कृतज्ञः, विनीतः, प्रागपि राजामात्यपौरजनबहुमतः, अद्रोहकारी, कल्याणाङ्गः, श्राद्धः, स्थिरः, समुपसंपन्नश्चेति। धर्मबिन्दु, 4.226 2. विशुद्धकुलगोत्रस्य सवृत्तस्य वपुष्मतः।। दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः / / आदि०३६.१५८ 3. सुदेशकुलजात्यगे ब्राहणे क्षत्रिये विशि। निष्कलङ्के क्षमे स्थाप्या जिनमुद्रार्चिता सताम्।।धर्मा० 6.88 4. दे० धर्मा०, पृ०६६४ 5. कम्मुणा बम्मणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्से कम्मुणा होइ, सुद्द हवइ कम्मुणा / उ०२५.३३