________________ साधु परमेष्ठी 195 पंचविधनिर्ग्रन्थ : निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के बतलाए गए हैं। ये हैं- पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक / ' (क) पुलाक: पुलाक का अर्थ है- मलसहित तण्डुल / इस प्रकार पुलाक के समान कुछ दोष सहित अर्थात् जो उत्तरगुणों की भावना से रहित हों तथा जिनके मूलगुणों में भी कभी-कभी दोष लग जाता हो उनको पुलाक कहते हैं। (ख) बकुश: बकुश का अर्थ है- शबल (चितकबरा)।जो मूलगुणों का निर्दोष पालन करते हैं लेकिन शरीर और उपकरणों की शोभा बढ़ाने की इच्छा रखते हैं और परिवार में मोह रखते हैं। इस प्रकार शबल अतिचार दोषों से युक्त हैं, उनको बकुश कहते है। (ग) कुशील : कुशील के दो भेद हैं- प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील / जो उपकरण तथा शरीर आदि से पूर्ण विरक्त न हों तथा जो मूल और उत्तरगुणों का निर्दोष करते हों लेकिन जिनके उत्तरगुणों की कभी-कभी विराधना हो जाती हो उनको प्रतिसेवनाकुशील कहते है। अन्य कषायों कोजीत लेने के कारण जिनके केवल संज्वलनकषाय'का ही उदय हो वे कषायकुशील कहलाते हैं। (घ) निर्ग्रन्थ : जिस प्रकार जल में लकड़ी की रेखा अप्रकट रहती है उसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रकट हो और जिनको अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला हो उनको निर्ग्रन्थ कहते हैं। (ङ) स्नातक : घातिया कर्मों का नाश करने वाले केवली भगवान् को स्नातक कहते हैं।' इस प्रकार चारित्रके तारतम्य के कारण निर्ग्रन्थ के पांचभेद है। तात्त्विक दृष्टि से निर्ग्रन्थ वही है जिसमें रागद्वेष की गांठ (ग्रन्थि) बिल्कुल न हो, परन्तु 1. पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः / / त० सू०६.४८ 2. क्रोध, मान, मायाऔर लोभये प्रत्येक कषायअनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान,प्रत्याख्यान और संज्वलन के रूप में चार-चार प्रकार के होते है / जो कषाय संयम के साथ भी रहती है लेकिन जिसके उदय से यथाख्यातचरित्र नहीं हो सकता वह संज्वलन कषाय है। दे०- त०वृ० 8.6, पृ०२६७ 3. वही, 6.46