________________ साधु परमेष्ठी 199 इन नौ आन्तरिक कुसंस्कारों का मुण्डन अर्थात् इन पर पहले विजय पाना आवश्यक है। तत्पश्चात् ही सिर के बालों का मुण्डन कराना सार्थक होता है। ऐसा मानसिक विजेता ही सच्चे अर्थों में साधुपद ग्रहण करने के योग्य होता है। (घ) साधुत्व का धारण किस लिए? जन्म से ही कोई साधु नहीं होता और न ही जन्म लेने के पश्चात् उसे कोई बलपूर्वक साधु बना सकता है बल्कि यह स्वेच्छा से ही साधुत्व को ग्रहण करता है। ऐसी स्थिति में सहज ही यह प्रश्न होता है कि ऐसा कौन सा कारण विशेष है जिससे सत्त्व प्रव्रज्या अथवा साधुत्व को अंगीकार करते हैं ? यह सत्य है कि प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे कोई न कोई प्रयोजन अवश्य रहता है। मनुष्य निष्प्रयोजन तो कोई कार्य करता ही नहीं / विशेषतः श्रमणत्व जैसे दुष्कर कार्यों में तो मनुष्य की प्रवृत्ति निष्प्रयोजन सम्भव ही नहीं है। अतः इसके पीछे कोई विशेष प्रयोजन अभिप्रेत है। उत्तराध्ययनसूत्र में दीक्षा (प्रव्रज्या) ग्रहण करने का कारण जीवन की क्षणभंगुरता तथा दुःख बतलाया गया है। कर्मफल सभी को भोगना पड़ता है, इसमें बन्धु-बान्धव तथासगेसम्बन्धीआदिकोई भी सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म कर्ता के ही पीछे चलता है। अतः मनुष्य सांसारिक सुखों का त्याग कर मुनिव्रत को स्वीकार करता है जिसे पाकर पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता। समराइच्चकहा में भी सांसारिक क्लेशअर्थात् जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक,संयोगऔर वियोगआदि के कारण ही सम्पूर्ण दुःखों के मोचक श्रमणत्व को ग्रहण करने काउल्लेख मिलता है। यहां प्रव्रज्यारूपीमहाकुठार से कर्मतरु को काटकर सभी प्रकार के बन्धनों से छुटकारा पाना परलोक में सहायक बतलाया है। - 1. असासयं दतु इमं विहारं, बहुअन्तरायं न य दीहमाउं। तम्हा गिहंसि न रइं लहामो, आमन्तयामो चरिस्सामुमोणं।। उ०,१४.७ 2. न तस्य दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा। एक्का सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं / / वही, 13.23 3. अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो, जहिं पवन्ना न पुणव्भवामो। अणागयं नेव य अत्थि किंचि, सद्धाखमंणे विणइत्तु रागं / / वही, 14.28 4. सम०क०४, पृ०३३७ 5. वही, क०१, पृ०५६.२.पृ०१२७.४.पृ२४६:६.पृ०५७४:७.पृ६२३:८.पृ०८११-१२।