________________ 180 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी रौद्रध्यान अविरत औरस देशविरत गुणस्थानवर्ती जीवों के होता है परन्तु देशविरत के रौद्रध्यान कभी-कभी ही होता है, एकदेश से विरत होने के कारण कभी-कभी हिंसा आदि में प्रवृत्ति और धनसंरक्षण आदि की इच्छा हो जाती है जिससे रौद्र ध्यान होता है।' (3) धर्मध्यान: आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान की विचारणा के निमित्त मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है। यहां निमित्त के भेद से धर्मध्यान के चार भेद हैं(अ) आज्ञाविचय धर्मध्यान : किसी भी पदार्थ का विचार करते समय ऐसा मनन करना कि इस विषय में जो जिनदेव की आज्ञा है, वह प्रमाण है, आज्ञाविचय धर्मध्यान है। (आ) अपायविचय धर्मध्यान : मिथ्यादृष्टि जीव जन्मान्ध के समान हैं। वे वीतराग-प्रणीत मार्ग से पराङ्मुख रहते हुए भी मोक्ष की इच्छा करते हैं, लेकिन उसके मार्ग को नहीं जानते हैं। इस प्रकार सन्मार्ग के विनाश का विचार करना अपायविचय है अथवा प्राणियों के मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का विनाश कैसे होगा, इस पर विचार करना अपाचविचय है। (ई) विपाकविचय धर्मध्यान : ___ द्रव्य,क्षेत्र, काल,भव और भाव इनकी अपेक्षा कर्म कैसे-कैसे फल देते हैं इसका सतत विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है। (उ) संस्थानविचय धर्मध्यान : लोक के आकार और उसके स्वरूपके विचार में अपने चित्त को लगाना संस्थानविचय धर्मध्यान है।' अप्रमत्तसंयत मुनि के साक्षात् धर्मध्यान होता है और अविरत देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों के गौण धर्मध्यान होता है। (4) शुक्लध्यान : शुद्ध आत्म-तत्त्व में चित्त को स्थिर करना शुक्लध्यान है। यह ध्यान आत्मा के निर्मल परिणामों से उत्पन्न होता है। उत्तरोत्तर विकासक्रम के आधार पर इसके भी चार भेद हैं -पृथक्त्वविर्तक, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृति। 1. दे. त.वृ. 6.35 पृ. 308 2. आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ।त. सू. 6.37 3. विस्तार के लिए दे.त.वृ. 6.36, पृ. 306 4. वही, पृ. 306-310 5. मलरहितं जीवपरिणामोद्भवं शुचिगुणयोगाच्छुक्लम् / वही, 6.28, पृ. 306 6. पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्यपरतक्रियानिवृत्तीनि। त. सू. 6.41