________________ 182 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी आश्रय लेकर शेष योगों को रोक देते हैं तब वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान कहलाता है क्योंकि उसमें श्वास-उच्छवास के समान सूक्ष्मक्रिया ही शेष रह जाती है और उससे पतन भी सम्भव नहीं है। (उ) व्युपरत-क्रियानिवृत्ति : इसध्यान में शरीर की श्वास-प्रश्वास आदि सूक्ष्म क्रियाएं भी बन्द हो जाती हैं और आत्मप्रदेश सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाते हैं, अतः इसे समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान भी कहा जाता है। इस ध्यान में स्थूल या सूक्ष्म किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया नहीं रहती तथा वह स्थिति बाद में नष्ट भी नहीं होती है।' सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान में यद्यपि चिन्ता का निरोध नहीं है फिर भी उपचार से उनको ध्यान कहते हैं। कारण कि यहां भी अघातिया कर्मों के नाश करने के लिए योगनिरोध करना पड़ता है / यद्यपि केवली के ध्यान करने योग्य कुछ भी नहीं है फिर भी उनका ध्यान अधिक स्थिति वाले कर्मों की समस्थिति करने के लिए होता है। इस ध्यान से निर्वाण सुख की प्राप्ति होती है। उपाध्याय महाराज उपर्युक्त बारह प्रकार के तप का स्वयं दृढ़ता से पालन करते हैं तथा संघ के अन्य साधु-साध्वियों को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं। पांच महाव्रत, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति और चतुर्विध कषाय का वर्णनआचार्य के गुणों में किया जा चुका है। इस प्रकार यह चरणसप्तति है। 4. प्रभावना सम्पन्न उपाध्याय : यहां प्रभावना से अभिप्राय है-जैनधर्म का प्रचार एवं प्रसार करना, उसका गौरव बढ़ाना / यह प्रभावना आठ प्रकार की बतलायी गयी है जो निम्न प्रकार हैं-३ (1) प्रवचनप्रभावना : __ सभी जैन शास्त्रों का तथा षड्दर्शन एवं न्यायशास्त्रआदिअनेक ग्रन्थों का अध्ययन, मनन, चिन्तन एवं निदिध्यासन करके, उनके अर्थ, भावार्थ तथा परमार्थ को ग्रहण करते हुए समय पर उसे ढंग से अभिव्यक्त करना जिससे कि किसी भी मत का श्रोता प्रभावित होकर सद्धर्भ की ओर आकृष्ट होवे, यह प्रवचनप्रभावना है। (2) धर्मकथाप्रभावना : स्वाध्याय तप का एक भेद है धर्मकथा अर्थात् धर्म का उपदेश करना। 1. दे. वही, पृ. 226-230 2. दे.त.वृ. 6.44. पृ.३१३ 3. दे.जैन तत्व कलिका, पृ. 207-206