________________ उपाध्याय परमेष्ठी 183 धर्मकथा के चार भेद हैं(अ) आक्षेपणी : जिस कथा में ज्ञान और चारित्र का कथन किया जाता है उसे आक्षेपणी धर्मकथा कहते है। (आ) विक्षेपणी : जिस कथा में स्वसमय और परसमय का कथन किया जाता है वह विक्षेपणी है। (इ) संवेजनी : ज्ञान, चारित्र और तप के अभ्यास से आत्मा में कैसी-कैसी शक्तियां प्रकट होती हैं, इनका निरूपण करने वाली संवेजनी धर्मकथा है। (उ) निर्वेजनी : जिस कथा को सुनकर श्रोता की चित्तवृत्ति संसार से निवृत्तिधारण करे वह निर्वेजनी धर्मकथा है। (3) वादप्रभावना : किसी स्थान पर जैनधर्म में स्थित धर्मात्मा पुरुष को गुमराह करके धर्मभ्रष्ट करने का प्रयत्नचल रहाहो, तोवहां पहुंचकरअपनेशुद्ध आचार-विचार द्वारा उन्हें सत्यासत्य का भेद बतलाकर, उस व्यक्ति को धर्म में स्थित होने में सहायता देना अथवा वाद-विवाद का प्रसंग हो तो सत्यपक्ष का मण्डन करते हुए मिथ्यापक्ष का खण्डन करना, वादप्रभावना है। (4) त्रिकालज्ञप्रभावना : . जम्बद्धीप प्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों में वर्णित भगोल का ज्ञाता बनना और खगोल एवं ज्योतिषादि विद्याओं में पारंगत होना जिससे कि त्रिकाल - सम्बन्धी शुभ-अशुभ बातों का ज्ञान हो सके और जनसामान्य को उस प्रकार की बातों का प्रकाशन करके उन्हें हानि से बचाकर लाभान्वित किया जा सके, यही त्रिकालज्ञप्रभावना है। इससे जिन शास्त्र का प्रभाव बढ़ता है। (5) तप प्रभावना : यथाशक्ति कठोर तपस्या करना जिससे लोग प्रभावित हो सकें और स्वंय भी तपश्चरण में लग जाए यही तपप्रभावना है। (6) व्रतप्रभावना : घी, दूध, दही इत्यादि का त्याग, मौन, कठोर अभिग्रह एवं कायोत्सर्ग इत्यादि क्रियाओं के आचरण से धर्म का प्रभाव बढ़ाना व्रतप्रभावना है। (7) विद्याप्रभावना : रोहिणी, परकायप्रवेश, गगनगामिनी आदि क्रियाओं तथा मन्त्रशक्ति, 1. दे.भग.आ.. गा. 654-56