________________ 192 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी होता है / वह केवल अपनी शुद्ध आत्मा में लीन रहता है। उसकी अन्तरंग और बाह्य वृत्तियां बिल्कुल शान्त होती हैं / अतः वह तरंगरहित समुद्र के समान होता है / वह वैराग्य की पराकाष्ठा पर पहुंचा हुआ होता है और तुरन्त के जन्मे हुए बालक की तरह निर्विकार और नग्न होता है / अन्तरंग और बहिरंग मोह की ग्रन्थियों का भेदक होने से वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। नमस्करणीय : साधु : तपस्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है, परीषह एवं उपसर्ग इत्यादि उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। वह कामजयी होता है। शुद्ध शास्त्रोक्त विधि से आहार ग्रहण करता है और सदा त्याग में तत्पर रहता है / इस प्रकार के अनेक साधुजनोचित सद्गुणों से युक्त साधु कल्याण की भावना से नमस्कार करने के योग्य है। इन दो प्रकार के साधुओं से व्यतिरिक्त साधु का एक और तीसरा प्रकार आगमों में उपलब्ध है वह है-भिक्षु साधु / भिक्षु : साधु : उत्तराध्ययन सूत्र में तो 'स भिक्खु' नाम का पूरा अध्याय ही मिलता है। यहां बतलाया गया है कि 'साधु वही है जिसने विचारपूर्वक मुनिवृत्ति अंगीकार कर ली है, जो सम्यग्दर्शन आदि गुणों से युक्त है, सरल स्वभाव वाला तथा संसारियों के परिचय का त्यागी है एवं विषयों की अभिलाषा से रहित होकर अज्ञातकुलों की गोचरी करता हुआ विचरण करता है, वह भिक्षु साधु है। जो राग से उपरत, संयम में तत्पर, आस्रव से विरत, शास्त्रों का ज्ञाता तथा समभाव से सब कुछ सहन करने वाला है। जो सुव्रती, तपस्वी और निर्मल आचार से युक्त है, कुतहलरहित है एवं आत्मा की खोज में लगा हुआ है, वही भिक्षु है। जो रोग आदि से पीड़ित होने पर मन्त्र, जड़ी-बूटी आदि तथा स्वजनों कीशरण का त्याग करता है, जो कुछ नदेने वाले के प्रति द्वेष नहीं करता और देने पर आशीर्वाद इत्यादि नहीं देता तथा ठण्डे एवं नीरसभोजन-पान की जो निन्दा नहीं करता तथा परिमित आहार लेता है। अनेक प्रकार के रौद्र शब्दों को सुनकर भी जो डरता नहीं है, जो शिल्पजीवी नहीं है, जिसका कोई घर नहीं है, जिसके क्रोधादि कषाय मन्द पड़ चुके हैं, जितेन्द्रिय है, और जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित है तथा जो एकाकी विहार करता है, वही श्रेष्ठ साधु है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सच्चा साधु वही है जो अपना घर-बार छोड़कर संयम की साधना में लगा हुआ है। जिसे न किसी से 1. दे०-पंचाध्यायी, 2.667-674