________________ 190 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी दशाश्रुतस्कन्ध में भी इसी आशय को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से मोक्ष को साधता है, वह साधु है।' आवश्यक नियुक्ति से भी इसकी पुष्टि होती है। यहां पर बतलाया गया है कि जो अभीष्ट अर्थ की साधना करता है, वही साधु है। यहां अभीष्ट अर्थ से अभिप्राय मोक्ष-प्राप्ति ही है। इसको आगम में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'जो मोक्ष के साधक व्यापारों अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना करते हैं और सब प्राणियों पर समबुद्धि रखते हैं, वे ही साधु परमेष्ठीहैं निव्वाणसहाए जोगे, जम्हा साहति साहुणो। समा य सव्वभूएसु, तम्हा ते भावसाहुणो।।' समतावान्ःसाधु : साधु समता की साधना करता है, इस आशय को और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि साधु के लिए शत्रु व मित्र समान है, वह सुख-दुःख में समभाव रखता है, प्रशंसा और निन्दा में समान रहता है, पत्थर का ढेला और सुवर्ण उसे एक समान प्रतीत होते हैं और जीवन-मरण में भी वह समभाव को सुरक्षित रखता है। श्रमणसूत्र में भी यही बतलाया गया है कि 'साधु लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में,जीवन और मरण में, निन्दा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समतावान् होता है | संस्कृत-शब्दकोष वाचस्पत्यम् में भी साधु के साधुत्व को बतलाते हुए कहा गया है कि साधु सम्मान में प्रसन्न नहीं होता और अपमान होने पर क्रोध नहीं करता। वह अपने आप को कष्ट पहुंचाकर भी दूसरे को सुख ही पहुंचाता है। यही जैन सन्त की पहचान है। किसी साधु में यदि इन गुणों की विपरीतता पायी जाए तो वह जैन साधु तो हो ही नहीं सकता। निर्मोही:साधुः : आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में बतलाते हैं कि जो समस्त बाह्यव्यापार - 1. सम्यग्दर्शन ज्ञानाचारित्रैर्मोक्षं साधयतीति साधुः / दशा. टीका, 6.4, पृ. 180-81 / 2. अभिलषितमर्थसाधयति इति साधुः / / आ.नि., गा. 1008 3. वही, गा. 1010 4 समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पंसंसणिंदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।। प्रवचनसार, 3.41 5. लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निन्दा पसंसासु तहा माणावमाणओ।। समणुसुत्तं, गा. 347 6 न प्रहृष्यति सम्माने न अपमाने च कुप्यति, आत्मानं पीडयित्वापि साधुः सुखयेत् परम् / / वाचस्पत्यम्