________________ साधु परमेष्ठी 191 रहित, ज्ञान, दर्शन, चारित्र औरतपनामक चतुर्विधआराधना में सदैवअनुरक्त, बाह्य-अभ्यन्तर समस्त परिग्रह रहित होने से निर्ग्रन्थ तथा मिथ्या ज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्या-चारित्र का अभाव होने से जो निर्मोही है-वही साधु है क्योंकि कहा भी है कि जिस साधु के शरीर आदि परपदार्थों में परमाणु मात्र भीमूर्छा-ममत्वभाव विद्यमान है, वह समस्त आगमकाधारक होकर भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। स्वावलम्बी : साधु : साधु स्वावलम्बी होता है और बुद्धिपूर्वक विकार, प्रमाद, कषाय एवं अन्य प्रकार की मलिन प्रवृतियों का त्याग करता है। इस प्रकार उसका हृदय सदैव पवित्र रहता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'मुनि, व्रत और सम्यक्त्व से विशुद्ध, पञ्चेन्द्रियों से नियन्त्रित और बाह्य पदार्थों की अपेक्षारहित शुद्धात्मस्वरूप तीर्थ में दीक्षा तथा शिक्षा रूप उत्तम स्नान से स्नान करे। सर्वार्थसिद्धि में आता है कि 'साधु वह है जो चिरकाल से दीक्षित हो / ऐसे साधु को दृढ़तापूर्वक शीलव्रतों का पालन करना चाहिए और राग से रहित तथा विविध विनयों से युक्त होना चाहिए। ___ कवि राजमल्ल ने भी साधु के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला है। यहां दो प्रकार के साधु बतलाये गए हैं वे हैं-निर्ग्रन्थी साधु और नमस्करणीय साधु। निर्ग्रन्थी : साधु : ___सम्यग्दर्शन से युक्त चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है। उस चारित्र की आत्मशुद्धि के लिए जो साधना करता है, वह साधु है। यह साधु न तो कुछ कहता ही है और न ही कोई संकेत ही करता है तथा मन से भी वह कुछ-कुछ चिन्तन नहीं करताअर्थात् अपने मन, वचन,और कायपर उसका पूरा नियन्त्रण 1. वावारविप्पमुक्का चउविहाराहणासयारत्ता / णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होति / / नियम०, गा०७५ 2. परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो / विज्जदि जदि सो सिद्धिंण लहदि सव्वागमधरो वि / / प्रवचनसार, 3.36 3. वयसम्मतविसुद्धे पंचिदियसंजदे णिरावेक्खे / ण्हाएउ मुणी तित्थे दिक्खा सिक्खा सुण्हाणेण / / बोधपाहुड़, गा० 26 4. चिरप्रव्रजिततः साधुः / / सर्वार्थसिद्धि , 6.24, भाष्य 5. विनय के चार भेद हैं-ज्ञान विनय, दर्शन, विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय यह विनय तप के अन्तर्गत बतलाया जा चुका है। 6. थिरधरिय सीलमाला ववगयराया जसोहसडहत्था / बहुविणयभसियंगा सुहाइं साहू पयच्छंतु / / तिलोय० 1.5