________________ षष्ठ परिच्छेद साधु परमेष्ठी साधू परमेष्ठियों में अन्तिम परमेष्ठी हैं / जैन दर्शन में साधु का उतना ही महत्त्व है जितना कि अन्य परमेष्ठियों का है। साधु ही साधना की प्रथम सीढ़ी है। साधु हुए बिना अन्य उच्च पद पाना दुर्लभ है क्योंकि उपाध्याय, आचार्य और अरहन्त-ये तीनों ही साधनाफल की उच्च अवस्थाएं हैं जो इसी साधु के ही विकसित उत्तरोत्तर रूप हैं। साधु अपना आध्यात्मिक विकास करता हआ कभी उपाध्याय तो कभी आचार्य और कभी वर्तमान जीवन में अरहन्त पद प्राप्त करता है। यहां यह बात ध्यान रखने योग्य है कि अरहन्त बनने में जरूरी नहीं है कि वह पहले उपाध्याय अथवा आचार्य हो ।अरहन्त तो साधु साधना का चरम परिणाम है। साधु बनते ही परिणामों की निर्मलता उसे अरहन्त बना सकती है। यहां काललब्धि प्रबल है। वही अरहन्त उपाधि (= शरीर) के विशमन पर सिद्ध बन जाता है। अतः साधुपद ही मोक्षपद की प्राप्ति के लिए नींव का पत्थर है। छठे गुणस्थान प्रमत्तसंयत से लेकर बारहवें गुणस्थानक्षीणकषाय तक की साधुचर्या उसकी भूमिका है। इससे उन्नत अरहन्त अवस्था होती है। तत्पश्चात् सिद्ध परमेष्ठी उसकी भूमिका है। इससे उन्नत अरहन्त अवस्था होती है। तत्पश्चात् सिद्ध परमेष्ठी का पद आता है। साधु, उपाध्याय तथा आचार्य ये तीनों ही उत्तरोत्तर गुरु हैं / यद्यपि अरहन्त और सिद्ध गुरुओं के भी गुरु हैं फिर भी श्रावक के लिए प्रथमतः साधु ही पूज्य एवं अदरणीय है। (क) साधु शब्द का निर्वचन एवं उसकी व्याख्या सामान्यतः साधुशब्द अच्छा, भला,धार्मिक, सच्चा, परोपकारी इत्यादि अर्थों में प्रयुक्त होता है किन्तु जैनदर्शन में साधु शब्द का विशिष्ट निर्वचन उपलब्ध होता है। यथार्थ साधक : साधु : - साधु का मूल अर्थ है-साधक | साधना करने वाला साधक होता है। भगवतीसूत्र में साधु का निर्वचन करते हुए कहा गया है कि जो ज्ञान आदि शक्तियों के द्वारा मोक्ष की साधना करते हैं अथवा जो सभी प्राणियों के प्रति मैत्र्यादि समता की भावना रखते है, वे ही साधु कहलाते हैं।' 1. साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधवः, समता वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति।। भग.वृ.प.४