________________ उपाध्याय परमेष्ठी 187 16. स्वयम्भूरमणसमुद्रसम:जिस प्रकार स्वयम्भूरमणसमुद्र अपने सुसवादु एवं अक्षय जल से सुशोभित होता है, उसी प्रकार अपने निर्मल एवं अक्षयज्ञान से परिपूर्ण उपाध्याय उस ज्ञानकोभव्यजीवों में रुचिकर शैली से प्रकट करते हुए सुशोभित होते हैं / ये उपमाएं उपाध्याय के गुणों पर उचित प्रकाश डालती है। उपाध्याय इस प्रकार अनेक गुणों से युक्त होते हुए संघ में सुशोभित होते हैं। (च) उपाध्याय का कार्य : संघस्थ साधु-साध्वी वर्गको विधिपूर्वक शास्त्रों का पठन-पाठन कराना ही उपाध्याय का मुख्य कार्य है। आचार्य कीआठ सम्प्रादाओं में बतलाया गया है कि आचार्य आगमों कीअर्थवाचना देते हैं | आचार्य शिष्यवर्ग को आगमों का गूढ़ रहस्य तो समझा देते हैं किन्तु सूत्र वाचना का जो कार्य है, वह तो उपाध्याय के द्वारा ही सम्पन्न होता है। इसी कारण से उपाध्याय को सूत्रवाचना - प्रदाता कहा गया है। इसका अभिप्राय यही है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता एवं विशदता बनाए रखने को दायित्व उपाध्याय का ही है / उपाध्याय को सूत्र-वाचना देने में अत्यधिक प्रयत्नशील और जागरूक रहना होता है। वह श्रमणसंघरूपीनन्दनवन के ज्ञान-विज्ञान रूपवृक्षों की शुद्धता एवं विकास की ओर सदा सचेत रहने वाला एक कुशलमाली है। उसके दृढ़ प्रयास के फलस्वरूप ही आगमपाठ शुद्ध, स्थिर और यथावत् बना रहता है। जहां तक शिक्षा देने का सम्बन्ध है, आचार्य और उपाध्याय समान हैं, किन्तु दीक्षा देना और संघ पर अनुशासन करना आचार्य की अधिकार सीमा हैं। आचार्य का कार्य संघ को व्यवस्थित करना है जबकि पठन-पाठन का कार्य तो उपाध्यायही सम्पन्न करता है। यहांतककि वहआचार्य की अनुपस्थिति में उनके कार्य का संचालन भी करता है। इस प्राकर जैन श्रमण परम्परा में उपाध्याय का पद अत्यधिक महत्त्वपूर्ण एवं गौरवशाली है। (छ) उपाध्याय- भक्ति : उपाध्याय-भक्ति से अभिप्राय है- उनके पास बैठकर श्रुतज्ञान प्राप्त करना / जो साधु-साध्वी अथवा श्रावक-श्राविका उपाध्याय की भक्ति करते हैं -उनके पास बैठकर श्रुतज्ञान प्राप्त करते हैं,उनकेअज्ञान की ग्रन्थियां छिन्न-भिन्न हो जाती हैं तथा वे परम ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं / अरहन्त, सिद्ध और आचार्य भक्ति की तरह उपाध्याय-भक्ति को भी तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव का हेतु बतलाया गया है / अतःभव्य प्राणियों को शुद्ध भाव से उपाध्याय की भक्ति करनी चाहिए। 1. उपाध्यायः सूत्रदाता / स्थानांगवृत्ति, 3. 4. 323 2. त० सू० 6.23