________________ 184 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी अंजनसिद्धि एवं रससिद्धि इत्यादि अनेक विद्याओं में उपाध्याय प्रवीण होते हैं किन्तु उनका प्रयोग नहीं करते। यदि जैनधर्म की प्रभावना का कोई विशेष अवसर आ जाए तो उनका प्रयोग करते हैं परन्तु इसके लिए यह विधान है कि बाद में उसका प्रायश्चित ग्रहण कर स्वशुद्धि अवश्य की जाती है। (8) कवित्वप्रभावना : - नाना प्रकार के छन्द, कविता, ढाल, स्तवन आदि काव्यों की रचना द्वारा गूढ़ और दुरुह विषयों को रसप्रद बनाकर आत्मज्ञान की शक्ति प्राप्त करना और उन रचानाओं के माध्यम से जैनधर्म की प्रभावना बढ़ाना, यह कवित्व प्रभावना कहलाती है / इस प्रकार इन आठ प्रकार की प्रभावनाओं में से किसी भी प्रभावना से उपाध्याय जैनधर्म की प्रभावना बढ़ा सकते हैं | 5. मन, वचन और काय का समाहरण : - उपाध्याय मन, वचन और काय का समाहरण करते हैं | मन, वचन और काय के समाहरण के विषय में साधु के गुणो के प्रसग्ड में बतलाया जायगा, इसके साथ ही उपाध्याय के गुणों की प्रथम पद्धति का विवेचन सम्पन्न हुआ। प्रकारान्तर से उपाध्याय के पच्चीस गुण : एक अन्य पद्धति के अनुसार उपाध्याय के पच्चीस गुण इस प्रकार भी हैं --- एकादश अंग व चतुर्दश पूर्व' इन 25 मुख्य शास्त्रों को स्वयं पढ़े और भव्य प्राणियों के कल्याण एवं परोपकार के लिए अन्य योग्य व्यक्तियों (साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका वर्ग) को पढ़ावे | यही उपाध्याय के मुख्य पच्चीस गुण हैं / (ड) उपाध्याय की सोलह उपमाएं : - उत्तराध्ययन सूत्र में उपाध्याय (बहुश्रुत) की सोलह उपमाएं दी गई हैं। इन उपमाओं द्वारा उनकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है जो इस प्रकार हैं -- १-शंखोपम ' जैसे शंख में रखा हुआ दूध स्वयं अपने और अपने आधार के गुणों के कारण निर्मल एवं निर्विकार रहता है, उसी तरह उपाध्याय में धर्म, कीर्ति और श्रुत भी अपने और अपने आधार के चौदह पूर्व ये हैं - उत्पाद, अग्रायणी, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद, अवंध्य (कल्याण), प्राणायु (प्राणवाद), क्रियाविशाल तथा लोकबिन्दुसार / विस्तृत अध्ययन के लिए दे०-जैन साहित्य का इतिहास (पूर्व पीठिका), पृ०६२७-६३३ 2.- दे०-जैन तत्त्व कालिका, पृ०२०२ 3. दे०-उ० 11.15-30