________________ 178 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (6) ध्यान तप: साधना पद्धति में ध्यान का सर्वोपरि महत्त्व रहा है। ध्यान हमारी चेतना की ही एक अवस्था है। उत्तम संहनन वाले जीव का एक विषय में अन्तर्मुहूर्त के लिए अन्तःकरण की वृत्ति(=चित्तवृत्ति) का रुक जानाध्यान कहलाता है।' संहनन काअभिप्राय-शारीरिक संघटन से है।ध्यान के लिए मानसिक बल आवश्यक है और वह उत्तम संहनन वाले जीव में ही हो सकता है। वजवृषभ नाराच, ये तीन उत्तम संहनन हैं। इन तीन उत्तम संहनन वाले जीव को ही ध्यान का अधिकारी माना गया है। अर्धनाराच, कीलिका और असंप्राप्तसृपाटिका इन तीन संहननों में अन्तर्मुहूर्त तक चित्तवृत्ति के निरोध का सामर्थ्य नहीं है। अतः इस प्रकार के संहनन वाला जीव ध्यान का अधिकारी नहीं है। ध्यान का समय अन्तर्मुहूर्त होता है क्योंकि इससे अधिक समय तक ध्यान नहीं हो सकता कारण कि चिन्ताएं अत्यन्त दुर्धर और चपल होती हैं। कई बार ऐसा सुना जाता है कि अमुक व्यक्ति ने एक दिवस, एक अहोरात्र अथवा उससे भी अधिक समय तकध्यान किया। इससे मात्रअभिप्राय इतना ही है कि उतने समय तक उसका ध्यान का प्रवाह चलता रहा। जब किसी एक आलम्बन का एक बार ध्यान करके पुनः उसी आलम्बन का ध्यान किया जाता है तो वह ध्यानप्रवाह बढ़ जाता है। यह अन्तर्मुहूर्त का काल-परिमाण छद्मस्थ के ध्यान का है। सर्वज्ञ के ध्यान का काल परिमाण तो अधिक भी हो सकता है, क्योंकि सर्वज्ञ मन, वचन और शरीर के प्रवृत्तिविषयक सुदृढ़ प्रयत्न को अधिक समय तक भी बढ़ा सकता है। ध्यान के चार भेद हैं -(आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। (1) आर्तध्यान : ऋत का अर्थ है पीड़ाया दु:ख | उससे जो उत्पन्न हो वह आर्त कहलाता है। दुःख की उत्पत्ति के मुख्य चार हेतुओं के आधार पर आर्तध्यान चार प्रकार का है१. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्। आमुहूर्तात्। वही, 6.27-28 / 2. दे०-भावपाहुड, गा० टी०,७८. पृ०३५६-३६० 3. दे०-(संघवी). त०सू०. पृ०२२५ 4. आरौिद्रधर्मशुक्लानि। वही, 6.26 5. दुःखम् अर्दनमर्ति वा ऋतमुच्यते, ऋते दुःखे भवमार्तम्। त० वृ०६. 28, पृ० 306