________________ उपाध्याय परमेष्ठी 169 (4) मनःपर्ययज्ञान : जिसका भूतकाल में चिन्तवन किया हो, अथवा जिसकाभविष्यत् काल में चिन्तवन किया जाएगा,अथवा अर्धचिन्तित-वर्तमान में जिसका चिन्तवन किया जा रहा है, इत्यादि अनेक भेदस्वरूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाए उस ज्ञान को मनःपर्यय कहते हैं। (5) केवलज्ञानःजोज्ञान त्रिकालवर्ती समस्तद्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान कराता है, वह केवलज्ञान है। केवलज्ञान का विस्तृत विवेचन अरहन्त के स्वरूप में किया जा चुका है। (इ) सम्यकचारित्र: सम्यक्चारित्र को सदाचार का नाम भी दिया जाता है। निश्चय से स्वकीय शुद्ध रूप में निश्चल होने को सम्यक्चारित्र कहते है / सम्यग्ज्ञानी जीव का हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह-इन पांच पाप प्रणालियों से निवृत्त होना ही सम्यकचारित्र है।' सम्यकचारित्र के भेद : चारित्र के विकास-क्रम को ध्यान में रखते हुए इसे पाँच भागों में बांटा गया है-(१) सामायिक, (2) छेदोपस्थापना, (3) परिहार-विशुद्धि, (4) सूक्ष्मसाम्पराय और (5) यथाख्यातचारित्र। (1) समायिकचारित्र :समभाव में स्थित रहने के लिए समस्त अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिकचारित्र है। इसके दो भेद हैं-परिमितकाल सामयिक और अपरिमितकाल सामायिक / स्वाध्याय आदि करने में परिमितकाल सामायिक होता है और ईर्यापथ आदि में अपरिमितकाल सामायिक होता 1. चिंतियमचिंतियं वा, अद्धं चिंतियणेयभेयगयं। मणपज्जवं ति उच्चइ. जं जाणइ तं खुणरलोए।। गो०जी०, गा०४३८ 2. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य। त०सू०, 1.30 3. हिंसानृतचौरय्येभ्योमैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च। __पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् / / रत्नक० 3.3 / 4 सामायिकक्ष्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यतानि चारित्रम् / त०सू०६.१८ तत्र समायिकं द्विप्रकारम.परिमितकालमपरिमिताकलञ्चेति। स्वाध्यायादौ सामायिकग्रहणं परिमितकालम् / ईर्यापथादावपरिमितकालं वेदितव्यम् / त०१० 6.18, पृ० 300