________________ उपाध्याय परमेष्ठी 175 (2) विनय तप: विनय से अभिप्राय है-ज्ञान आदि सद्गुणों में आदरभाव करना ।इस प्रकार ज्येष्ठ मुनियों का आदर भाव करना ही विनय तप है।' विनय वस्तुतः गुण रूप में एक प्रकार का ही होता है किन्तु विषय की दृष्टि से उसके चार भेद किए गए हैं-(१) ज्ञान विनय, (2) दर्शन विनय, (3) चारित्र विनय और (4) उपचार विनय / 1. ज्ञान विनय-ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास करना और उसे स्मरण रखना ज्ञान विनय है। २.दर्शन विनय-तत्त्वकीयथार्थप्रतीतिस्वरूपसम्यग्दर्शनसे विचलित नहोना, उसके प्रति उत्पन्न होने वालीशंकाओं का निवारण करके निःशंकभाव से साधना करना दर्शनविनय हैं 3. चारित्र विनय-सामायिक आदिचारित्रों में चित्त का समाधान रखना चारित्र विनय है। 4. उपचार विनय-जो अपने से सद्गुणों में श्रेष्ठ हों उनके प्रति अनेक प्रकार से योग्य व्यवहार करना, जैसे-उनके सम्मुख जाना, उनके आने पर खड़े होना, आसन देना, वन्दना करना आदि उपचार विनय है।' (3) वैयावृत्त्य तप: वैयावृत्त के भाव को वैयावृत्य कहते हैं / सेवाभावइसका मूल है ।आचार्य आदि मुनियों के कायिक क्लेश और मानसिक संक्लेशों को दूर करने में प्रवृत्त होना वैयावृत्त्य तप है।" आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और सुमनोज्ञ इनकी सेवाशुश्रुषा करने से वह दश प्रकार का हो जाता है। जो इस प्रकार हैं(१) आचार्य : जो स्वयं व्रतों का आचरण करते हैं और दूसरे मुनियों को कराते हैं वे 1. ज्येष्ठेषु मुनिषु आदरो विनय उच्यते।।त०१० 6.20. पृ०३०१ 2. ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः। त०सू०६.२३ 3. दे०-(संधवी). त०सू०. पृ० 220 4. क्लेशसंक्लेशनाशायाचार्यादिदशकस्य यः। व्यावृत्तस्तस्य यत्कर्मत्तवैयावृत्त्यमाचरेत् ।।धर्मा० 7.78 5. आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंधसाधुसमनोज्ञानाम् / त०सू०६.२४ 6. दे०-त०१० 6.24