________________ 174 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (आ) आभ्यन्तर तप के छह भेद / (1) प्रायश्चित्त तप : अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिसके द्वारा पूर्वकृत पाप से विशुद्ध हो जाता है वह प्रायश्चित्त तप है। आचार में लगे दोष अर्थात् भूल के शोधन के अनेक प्रकार हैं और वे सभी प्रायश्चित हैं / मुख्यतः प्रायश्चित के नौ भेद बतलाए गए हैं-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना।' 1. आलोचना : गुरु के समक्ष शुद्धभाव से अपनी भूल अथवा दोषों को प्रकट करना आलोचना है। 2. प्रतिक्रमण : पहले हुई भूल का अनुताप करके उससे निवृत्त होना और आगे भूल न हो इसके लिए सावधान रहना प्रतिक्रमण है। 3. तदुभय : पाप से निवृत्त होने के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों साथ करना तदुभय अथवा मिश्र आभ्यन्तर तप है। ४.विवेक :यदिअज्ञान से सदोष आहार आदि लिया हो तोऔर उसका बाद में पता चल जाए तब उसका त्याग कर देना विवेक है। 5. व्युत्सर्ग : एकाग्रतापूर्वक शरीर और वचन के व्यापारों को छोड़ना व्युत्सर्ग है। 6. तप : अनशन आदि बाह्य तप करना तप है। 7. छेद : दोष के अनुसार दिवस, पक्ष, मास या वर्ष की प्रव्रज्या कम करना छेद है। ८.परिहार:दोषपात्र व्यक्ति से दोष के अनुसार पक्ष, मासआदि पर्यन्त किसी प्रकार का संसर्ग न रखकर उसे दूर रखना परिहार तप है। 6. उपस्थापना :अहिंसा आदि महाव्रतों के भंग होने पर पुनः आरम्भ से उन महाव्रतों का आरोपण करना उपस्थापना है।" 1. प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्। त०सू० 6.20 2. पायच्छित्तं त्ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुवकयपावं / मूला०५.३६१ 3. आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकवयुत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनानि। तू० सू० 6.22 4. दे०- (संघवी). त०सू०.पु० 216-220