________________ 170 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (2) छेदोपस्थापनाचारित्र प्रमादवश अहिंसा आदि व्रतों में दोष लग जाने पर आगमोक्त विधि से उस दोष का प्रायश्चित करके पुनः व्रतों का ग्रहण करना छेदोस्थापना चारित्र है। व्रतों में दोष लग जाने पर पक्ष, मास आदि की दीक्षा का छेद करके पुनः व्रतों में स्थापना करना छेदोपस्थापनाचारित्र है।' (3) परिहारविशुद्धिचारित्र : परिहार से अभिप्राय है-- प्राणिवध-निवृत्ति / जिस चारित्र में जीवों की हिंसा का त्याग होने से विशेष शुद्धि (कर्ममल का नाश) होउसको परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। जिस मुनि की आयु बत्तीस वर्ष की हो, जो बहुत काल तक तीर्थंकर के चरणों में रह चुका हो, प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व में कहे गए सम्यक् आचार का जानने वाला हो, प्रमादरहित हो और सन्ध्याकालों को छोड़कर केवल दो गव्यूति (चार मील) गमन करने वाला हो उस मुनि के परिहारविशुद्धिचारित्र होता है। (4) सूक्ष्मसाम्पराय चारित्रःजिस चारित्र में क्रोध आदि कषायों कातोउदय नहीं होता, केवल लोभ कषाय काअंशअतिसूक्ष्मरूप में रहता है, वह सूक्ष्मसाम्परायचारित्र है। (5) यथाख्यातचारित्र : सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय होने पर आत्मा के अपने स्वरूप में स्थिरहोने कोयथाख्यातचारित्र कहते हैं / यथाख्यात का अर्थ है कि आत्मा के स्वरूप को जैसा का तैसा कहना / यथाख्यात कादूसरानामअथाख्यात भी है जिसका अर्थ है कि इस प्रकार के उत्कृष्ट चारित्र को जीव ने पहले प्राप्त नहीं किया था और मोह के उपशम या क्षय हो जाने पर प्राप्त किया है। 1. प्रमादेन कृतो योऽत्यर्थः प्रबन्धो हि हिंसादीनामव्रतानामनुष्ठानं तस्य विलोपे सर्वथा परित्यागे सम्यगागमोक्तविधिना प्रतिक्रिया पुनर्वतारोपणं छेदोपस्थाना, छेदेन दिवसपक्षमासादिप्रव्रज्याहापनेनोपस्थापना व्रतारोपणं छेदोपस्थापना / वही। परिहरणं परिहारः प्राणिवधनिवृत्तिरित्यर्थः / परिहारेण विशिष्टाशुद्धिः कर्ममलकलङ्कप्रक्षालनं ___ यस्मिन् चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिःचारित्रमिति वा विग्रहः / त०१० 6.18, पृ० 300 3. दे०-वही 4. अतीव सूक्ष्मलोभो यस्मिन् चारित्रे तत् सूक्ष्मसाम्परायं चारित्रम्। वही। 5. सर्वस्य मोहनीयस्योपशमः क्षयो वा वर्तते यस्मिन् तत् परमौदासीन्यलक्षणं जीवस्वभावदशं यथाख्यातचारित्रम् / यथा स्वभावः स्थितस्तैवाख्यातः कथित आत्मनो यस्मिन् चारित्रे तद यथा ख्यातिमिति निरुक्तेः / यथाख्यात- स्य अथाख्यातमिति च द्वितीया संज्ञा वर्तते / तत्रायमर्थःचिरन्तनचारित्रविधायिभिर्यदुत्कृष्टं चारित्रमाख्यातं कथितं तादृशं चारित्र पूर्व जीवेन न प्राप्तम्, अथ अनन्तरं मोहक्षयोपशमाभ्यां तु प्राप्तं यच्चारित्रं तत् अथाख्यातमुच्यते। वही ॐ ज