________________ 162 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी पाँच समिति, तीन गुप्ति और पाँच प्रकार का इन्द्रिय-निरोध इनका वर्णन आचार्य के गुणों के प्रसंग में हो चुका है। इस प्रकार सत्तर प्रकार का करण पूरा हुआ। (3) चरणसप्तति के धारक उपाध्याय : उपाध्याय का एक गुण चरणसप्तति से युक्त होना भी है। चरण काअर्थ है-चारित्र / चरण और करण में अन्तर यही है कि 'जिसका नित्य आचरण किया जाए' उसे चरण कहते हैं और जो प्रयोजन होने पर ही किया जाए' उसे करण कहते हैं। करण के समान चरण भी सत्तर प्रकार का है--पाँच महाव्रत, दशविध श्रमणधर्म, सतरह प्रकार का संयम, दस प्रकार का वैयावृत्त्य, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति, ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपरत्नत्रय,बारह प्रकार का तपऔर चार कषायें का निग्रह, ये सत्तर प्रकार के चरण होते हैं।' (क) दशविध श्रमण-धर्म : जो आत्मा को संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम स्थान (मोक्षपद) में पहुंचा दे वह धर्म है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचञ्य और ब्रह्मचर्य ये दश उत्तमधर्म हैं। क्षमा आदि दस प्रकार का यह धर्म जब अहिंसाआदि मूलगुणों तथा आहार-शुद्धि आदि उत्तरगुणों के प्रकर्ष से युक्त होता है तभी श्रमण-धर्म बनता है, अन्यथा नहीं | अतः मूलगुणों तथा उत्तरगुणों की प्रकृष्टता अत्यन्त आवश्यक है। ये दश धर्म इस प्रकार हैं (१)क्षमाः आहार को लेने के लिए दूसरों के घर जाने वाले मुनि कोदुष्टजनों के द्वारा गालीआदि दिए जाने पर या काय-विनाश आदि के उपस्थित होने पर भी मन में किसी प्रकार का क्रोध न करना क्षमा धर्म है। (2) मार्दवःज्ञान, पूजाआदिआठपदार्थों के घमण्ड को छोड़कर दूसरों के द्वारा तिरस्कार होने पर भी अभिमान न करना मार्दव धर्म है। - - 1. वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बम्भगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोहणिग्गहा इह चरणमेयं / / प्रवचनसारोद्धार, गा० 552 2. संसारसागरादुदधृतय इन्द्रनरेन्द्रधरणेन्द्रादिवन्दिते पदे आत्मानं धरतीति धर्मः / त०१० 6.2. पृ० 282 3. उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः।-त० सू० 6.6 4. कायस्थितिकारणविष्वाणा धन्वेषणाय परगृहान् पर्यटतो मुनेः दुष्टपापिष्ठपञ्चजनानामस हयगालिप्रदानवर्करवचनावहेलनपीडाजननकायाविनाशनादीनां समुत्पतौ मनोऽनच्छतानुत्पादः क्षमा कथ्यते। त०१० 6.6, पृ.२८४ 5. दे०-वही