________________ 160 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (इ) प्रमाद प्रतिलेखना के तेरह भेद : इन्हें प्रतिलेखना के दोष भी कहा जाता है। ये इस प्रकार हैं' (१)आरभटाःविपरीतरीतिसेजल्दी-जल्दी प्रतिलेखना करना अथवा एक वस्त्र की प्रतिलेखनाअधूरी छोड़कर दूसरे वस्त्र की करने लग जाना। (2) सम्मर्दा : प्रतिलेखना करते समय वस्त्र के कोने मुड़े रहें अर्थात् सिलवट न निकाली जाए अथवा उस पर बैठे हुए ही प्रतिलेखना करना। (3) मोसली : जैसे धान्य आदि कूटते समय मूसल ऊपर नीचे या तिरछा जाता है, उसी प्रकार प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे या तिरछा लगाना। (4) प्रस्फोटना : जिस प्रकार धूल से भरे हुए वस्त्र को जोर से झटकाया जाता है, उसी प्रकार प्रतिलेखना के वस्त्र को जोर से झटकाना। (5) विक्षिप्ता : प्रतिलेखना किए हुए वस्त्रों को प्रतिलेखना न किए हुए वस्त्रों में मिला देना अथवा वस्त्रों को इधर-उधर फैंक कर प्रतिलेखना करना। (6) वेदिका : प्रतिलेखना करते हुए घुटनों के ऊपर-नीचे या बीच में दोनों हाथ रखना, अथवा दोनों भुजाओं के बीच घुटनों को रखना, या एक घुटना भुजाओं में और दूसरा बाहर रखना। (7) प्रशिथिल : वस्त्र को ढीला पकड़ना। (E)प्रलम्बःवस्त्रको इस तरह पकड़ना कि उसके कोने लटकते रहें। (6) लोलः प्रतिलेखना किए जाने वाले वस्त्र को भूमि से या हाथ से रगड़ना। (10) एकामर्शा : वस्त्र को बीच से पकड़ कर एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख जाना। आरभडा सम्पदा वज्जेयव्वा य मोसली तइया। पप्फोडणा चउत्थी विक्खित्ता वेइया छट्टा।। पसिढिल-पलम्ब-लोला एगामोसाअणेगरूवधुणा / कुणइ पमाणि पमायं संकिए गणणोवगं कुज्जा / / उ० 26.26-27