________________ 36 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (आ) अघातिया कर्म : जो कर्म आत्मा के गुणों का घात नहीं करते, उनको किसीभी प्रकार की हानि नहीं पहुचाते-वे अघातिया कर्म कहलाते हैं। घातिया कर्मों का अभाव होने पर ये कर्म नहीं पनपते, उसी जन्म में क्षीण हो जाते हैं ।वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-ये चार अघातिया कर्म हैं। जैनों के द्वारा मान्य इनघातियाऔरअघातिया कर्मों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-- 3 ज्ञानावरणीय कर्म : जोआत्मा में रहने वाले ज्ञानगुणकोप्रकट नहीं होनेदेताउसेज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। ज्ञान के मुख्य पांच प्रकारों के आधार पर ज्ञानावरणीय कर्म के भी पांच अवान्तर भेद होते है:-- (1) आभिनिबोधिकज्ञानावरण (मतिज्ञानावरण) यह इन्द्रियजन्य ज्ञान का आवरक कर्म है। (2) श्रुतज्ञानावरण : यह शास्त्र ज्ञान का आवरक कर्म होता है। (3) अवधिज्ञानावरण : यहइन्द्रिय इत्यादि की सहायता के बिनाहोने वाले यौगिक प्रत्यक्ष ज्ञान का आवरक कर्म होता है। (4) मनःपर्ययज्ञानावरण : यह इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना दूसरे के मनोगतभावों को जानने वाले ज्ञान का आवरक कर्म होता है। (5) केवलज्ञानावरण : यह इन्द्रियादिकी सहायता के बिना होने वाले त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों की समस्त अवस्थाओं के ज्ञान का आवरक कर्म होता है। नाणावरणं पंचविहं सुयं आमिणिबोहियं / ओहिनाणं तईयं मणनाणं च केवलं / / उ० 33.4