________________ 148 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी ग्रन्थियों को नय और प्रमाण, निश्चय और व्यवहार' तथा उत्सर्ग एव अपवाद की शान पर चढ़ाकर अपने बुद्धिबल से सुलझाने में समर्थ होते हैं। श्रुतगुरु : वे ही संघ में आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं धार्मिक शिक्षा के सर्वोच्च प्रतिनिधि होते हैं / वे ही मोक्ष के साधनों का महत्त्वपूर्ण विवेचन करते हैं और वे ही श्रुतगुरु हैं। वे ज्ञान रूपी दिव्य-दीप को संघ में प्रज्वलित रखकर श्रुत-परम्परा को आगे ही आगे बढ़ाते हैं / इस प्रकार उपाध्याय का पद अत्यधिक प्रतिष्ठापूर्ण है। (ख) उपाध्याय पद की व्युत्पत्तिलभ्य व्याख्या : उपाध्याय शब्द उप+अधि इ + घञ् से बनता है। 'उपेत्य अस्मात् अधीयते इति उपाध्यायः' अर्थात् जिसके पास में जाकर अध्ययन किया जाता है, वह उपाध्याय होता है। इस प्रकार उपाध्याय से शिक्षक, गुरू, अध्यापक आदि अर्थ लिया जाता है। जैन दर्शन में उपाध्याय पद की विशिष्ट परिभाषाएं मिलती हैं। जैसे-- (क) भगवतीसूत्र में उपाध्याय का निर्वचन करते हुए बतलाया गया है कि 'उप' अर्थात् समीप तथा 'इङ् धातु अध्ययन करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है। इस प्रकार उपाध्याय वह है जिसके समीप में जाकर अध्ययन किया जाता है, आत्मज्ञान प्राप्त किया जाता है। (ख) कुछ एक विद्वानों के अनुसार 'इण' धातु गति अर्थ में आती है तथा अधि' से अभिप्राय है--अधिक अर्थात् बार-बार ।अतः जिनके पास बार-बार ज्ञान प्राप्ति के लिए जाया जाता है, वे उपाध्याय हैं / (ग) अन्य कुछ विद्वान् मानते हैं कि 'इक्' धातु स्मरण अर्थ में होती है और जिनके पास सूत्र क्रमानुसार जिन प्रवचन का स्मरण किया जाता है, वे उपाध्याय हैं। 1. तेन सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः / त०वृ० 1.6, पृ०८-६ 2. ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। समयसार, जीवाजीवाधिकार, गा०११ 3 दे०-संस्कृत-शब्दार्थ कौस्तुभ। 4. उप-समीपमागत्याधीयते 'इङ्अध्ययने' इति वचनात् पठ्यते। भग०वृ०प०४ 5. 'इण गता' वितिवचनाद्वा अधि-आधिक्येन गम्यते। वही 6 इक स्मरणे' इति वचनाद्वा स्मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्यायाः। वही।