________________ 150 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी गुणों को छोड़कर आचार्य के सभी गुणों के धारक होते हैं अर्थात् आचार्य तुल्य ही होते हैं। (ज) आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'जो रत्नत्रय से युक्त हैं, जिनकथित पदार्थों के शूरवीर उपदेशक हैं और जो निकांक्षभाव से युक्त हैं, वे उपाध्याय कहलाते है। इसी प्रकार आचार्य नेमिचन्द्र ने रत्नत्रय से युक्त, सदा धर्मोपदेश देने में तत्पर एवं मुनियों में श्रेष्ठ आत्मा को उपाध्याय बतलाया है। ये उपाध्याय अज्ञान रूपी अन्धकार में भटके हुए प्राणियों को ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान करते हैं।' इस प्रकार उपाध्याय सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप रत्नत्रय से युक्त एक श्रेष्ठ मुनि होते हैं। उनका मुख्य कार्य शास्त्रों का पठन-पाठन है। नवदीचित साधु-साध्वियों के अध्यापन का कार्यभार उपाध्याय के ही ऊपर होता है। ज्ञान के बिना साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। उपाध्याय आगम-सूत्रों की वाचना से मुमुक्षुजनों के अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट कर डालते हैं। संघ के संचालन का कार्य आचार्य का होता है परन्तु जीवन की रहस्यपूर्ण ग्रन्थियों को सुलझाने का कार्य तो मुख्य रूप से उपाध्याय ही करते हैं / अतः उपाध्याय संघ में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। (ग) उपाध्याय पद के लिए अर्हता उपाध्याय जैसे महत्त्वपूर्ण पद पर कौनं प्रतिष्ठित हो सकता है? उसमें कौन-कौन सी योग्यताएं होनी चाहिए? यह भी एक विचारणीय विषय है। जो व्यक्ति इस पर आरूढ़ होना चाहता है, पहले उसे शारीरिक, मानसिक और शैक्षणिक योग्यता की कसौटी पर कसा जाता है। यदि कोई व्यक्ति इस पद के अयोग्य है और वह इस पद पर आसीन हो जाता है तो वह इस पद का और शासन का भी गौरव घटाता है। इसलिए जैन मनीषिचिन्तकों ने उपाध्याय की योग्यता के विषय में बहुत ही सूक्ष्मता से चिन्तन किया है। 1. णमो उवज्झायाणं-चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः तात्कालिकप्रवचन-व्याख्यातारो वा आचार्यस्योक्ताशेषक्षणसमन्विताःसंग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः।।धवलाटीका, प्रथम पुस्तक, पृ०५१ 2. रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होन्ति।। नियम०, गा०७४ 3. जो रयणत्तयजुत्तो णिच्च धम्मोवएसणे णिरदो। सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स।। द्रव्यसंग्रह, गा०५३ 4. अण्णाणघोरतिमिरे दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं। भवियाणुजोययरा उवज्झया वरमदिं देंतु।। तिलोय० 1.4