________________ उपाध्याय परमेष्ठी 155 स्थान पर पहुँच जाती है। उसी प्रकार कर्मों का आगमन रोक देने पर कल्याण मार्ग में कोई बाधा नहीं आ सकती है। इस प्रकार विचार करना संवरानुप्रेक्षा है। 6. निर्जरानुप्रेक्षा : अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर जो कर्म खिर (झड़) जाते हैं उससे जीव काधर्मरूपी कार्य नहीं होता, किन्तु जो (निर्जरा) आत्मा के शुद्ध तप द्वारा कर्मों का नाश करती है, वह मोक्ष का सुख दिलाती है। ऐसा जानता हुआ सम्यग्दृष्टि जीवस्वद्रव्य के आलम्बन द्वारा जो शुद्धि करता है, वह निर्जरानुप्रेक्षा है। 10. लोकानुप्रेक्षा : अनन्त लोकाकाश के ठीक मध्य में लोक है। इस लोक को किसी ने बनाया नहीं है, इसे कोई धारण किए हुए नहीं है, इसका कोई नाश नहीं कर सकताऔर यह लोक षड्द्रव्यरूप है। इस प्रकार तत्त्वज्ञान की विशुद्धि के निमित्त लोक के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है। 11. बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा : संसार भ्रमण का एकमात्र कारण है--अपने स्वरूप को न जानना / आत्मज्ञान ही सम्यग्बोधि है। जीव एकेन्द्रिय आदि सभी योनियों में जन्म लेता रहता है, ऊँचे से ऊँचे (ग्रैवेयक) पद प्राप्त करता रहता है परन्तु मोहनीय आदि कर्मों के तीव्र आघांतों के कारण बोधि को प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। इस प्रकार चिन्तन करना ही बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा है। 12. धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा:धर्ममार्ग से च्युत न होने और उसके अनुष्ठान में स्थिरता लाने के लिए ऐसा चिन्तन करना कि 'यह 1. वाराशौ जलयानपात्रविवरप्रच्छादने तद्गतो यवत् पारमियति विघ्नविगतः सत्संवरः स्यात्तथा। संसारान्तगतश्चरित्रनिचयाद्धर्मादनुप्रेक्षणाद वैराग्येण परिषहक्षमतया संपद्यतेऽसौ चिरात्।।त०वृ०६.७. पृ०२६० 2. निजकाल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना। तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै।। छहढाला, ढालं 5, श्लो० 11 3. किन हू न करौ न घरै को, षड्द्रव्यमयी न हरे को। सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव निज भ्रमता।। वही, श्लो०१२ 4. अंतिम-ग्रीवकलों की. हद पायो अनंतविरियां पद। पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ।। छहढाला, ढाल 5, श्लो० 13