________________ 156 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी कितना बड़ा सौभाग्य है कि जिससे समस्त प्राणियों का कल्याण होता है, ऐसे सर्वगुणसम्पन्नधर्म का सत्पुरुषों ने उपदेश दिया है।' यह धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है।' इन बारह प्रकार की भावनाओं के सतत अनुचिन्तन से मन एकाग्र होता है और इन्द्रियाँ वश में होती हैं।मन के एकाग्र होनेसे स्व-संवेदन के द्वारा आत्मा की अनुभूति होती है / इसी आत्मानुभूति के द्वारा जीवनमुक्त दशा और अन्त में परम पद मोक्ष की प्राप्ति होती है। (ग) बराह भिक्षु प्रतिमाएं : - दशाश्रुतस्कन्ध में भिक्षु-प्रतिमाओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। इसे देखने से पता लगता है कि इनके नाम समय की सीमा के आधार पर रखे गए हैं तथा इन प्रतिमाओं में एक निश्चित क्रम के अनुसार अनशन और ऊनोदरी तप का अभ्यास किया जाता है। भिक्षु प्रतिमा का अर्थ बतलाते हुए कहा गया है कि 'प्रतिज्ञा अर्थात् अभिग्रह विशेष को प्रतिमा कहते हैं | जो तप और संयम में व्यवस्थित होकर कृत, कारित और अनुमोदित रूप से शुद्ध भिक्षा द्वारा अपना जीवन-निर्वाह करता है वह ही भिक्षु है, वही उसकी भिक्षु प्रतिमा है। ये भिक्षु प्रतिमाएँ भी बारह होती हैं..-- १.मासिकी प्रथम भिक्षुप्रतिमा:मासिकीअर्थात् एक मास-पर्यन्त रहने वाली / इसी से इसे मासिकी भिक्षु प्रतिमा कहते हैं। इस व्रत में प्रतिमाधारी भिक्षु एक मास तक प्रतिदिन एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेने का नियम करता है। यहाँ दत्ति से अभिप्राय है---जब तक दाता द्वारा दर्वी (कड़छी) अथवा कटोरा आदि से दिए जाते हुए पदार्थ की धारा न टूटे ,अखण्ड बनी रहे तब तक वह दत्ति कही जाती है। 2-7 द्वितीय से सप्तम प्रतिमा तक : दूसरी प्रतिमा में दो यत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण की जाती हैं। इसी प्रकार अन्न और पानी कीएक-एकदत्ति की वृद्धि तीसरीप्रतिमासे सातवीं प्रतिमा तक यह प्रक्रिया चलती रहती है / तात्पर्य यह है कि जितने 1. दे०-(संघवी). त०सू०. पृ० 213 2. तपःसंयमव्यवस्थितःकृतकारितानुमोदितपरिहारेण शुद्धमशनादिकं भिक्षुक इत्येवंशीलो भिक्षुस्तस्य प्रतिमाः= प्रतिज्ञाःअभिग्रहविशेषा इति यावत् प्रज्ञप्ताः / / दशा० 8.1 पर टीका 3. वही, 7.2 4. मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पइ एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहत्तिए, एगा पाणस्स / वही, 7.4