________________ 154 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगै जिय एक हि ते ते। सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी।।' अर्थात् जितने शुभ-अशुभ कर्म के फल हैं, उन सब को यह जीव अकेला ही भोगता है / पुत्र, स्त्री आदि साथ देने वाले नहीं होते। ये सब अपने स्वार्थ के सगे है। ऐसा चिन्तन करना ही एकत्वानुप्रेक्षा 5. अन्यत्वानुप्रेक्षा : यद्यपि जीव और शरीर दूध-पानी की भाँति मिले हुए हैं, फिर भी एकरूप नहीं हैं। इसलिए इन दोनों के गुणधर्मों की भिन्नता का चिन्तन करना कि शरीर तो जड़, स्थूल तथा आदि-अन्त युक्त है और मैं (-जीव) तो चेतन, सूक्ष्म तथा आदि-अन्तरहित हूँ | इस प्रकार चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। 6. अशुचित्वानुप्रेक्षा : यह शरीर अत्यन्त अपवित्र है। रुधिर, मांस, मज्जा आदि अशुचि पदार्थों का घर है। इस शरीर की अशुचिता जल में नहाने से और चन्दन आदि के लेप करने से भी दूर नहीं की जा सकती। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, और चरित्र ही जीव की विशुद्धि करते हैं, इस प्रकार का विचार करना ही अशुचित्वानुप्रेक्षा है।' ७.आसवानुप्रेक्षा :मन-वचन-काय योग की जो चंचलता है उससे आस्रव होता है। आस्रव बन्ध का कारण है, अत्यन्त दुःखदायक है, इस प्रकार भावनापूर्वक आस्रव के स्वरूप का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। 8. संवरानुप्रेक्षा : कर्मों का संवर हो जाने से जीव को दुः,ख नहीं होता है। जैसे नाव में छेद हो जाने पर उसमें जल भरने लगता है और नाव डूब जाती है। लेकिन छेद को बन्द कर देने पर नाव अपने 1. छहढाला, ढाल 5, श्लो०६ 2. नोऽनित्यं जड़रूपमैन्द्रिकमाद्यन्ताश्रितं वर्म यत् सोऽहं तानि बहूनि चाश्रयमयं खेदोऽस्ति संगादतः / नीरक्षीरवदङ्गतोऽपि यदिमेऽन्यत्वं ततोऽन्यदभृशं साक्षात्पुत्रकलत्रमित्रगृहरैरत्नादिकं मत्परम्।। त०१०६.७. पृ० 260 3. अङ्गं शोणितशुक्रसम्भवमिदं विण्मूत्रपात्रं न च स्नानलेपनघूपनादिभिरदः पूतं भवेज्जातुचित्। कर्पूरादिपवित्रमत्रनिहितं तच्चापवित्रं यथा / पीयूषं विषमङ्गनाधरगंत रत्नत्रयं शुद्धये।। वही 4. जो योगन की चपलाई.तातें हवै आस्रव भाई। आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निरवेरे / छहढाला, ढाल 5, श्लो०६