________________ उपाध्याय परमेष्ठी 151 जिसकी दीक्षा हुए तीन वर्ष हो गए हैं, ऐसाश्रमण निर्ग्रन्थ यदि आचार, संयम,प्रवचन,संग्रह और उपग्रह आदिमें कुशल है,परिपूर्ण (अक्षता),अखण्डित (अभिन्न) और निरतिचार (अशबल) चारित्र वाला है, असंक्लिष्ट आचार एवं असंक्लिष्ट चित्तवाला, बहुश्रुत एवं बहु आगमज्ञ है तथा कम से कम आचार प्रकल्पधर (निशीथसूत्र का ज्ञाता) है, ऐसा व्यक्ति विशेष ही उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित हो सकता हैं।' यही उपाध्याय बनने के लिए अथवा उसके पद को ग्रहण करने की न्यूनतम योग्यता है। इससे कम योग्यता वाले व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता और न ही वह उपाध्याय कहलाने योग्य होता है। उपर्युक्त योग्यताओं के अतिरिक्त कुछ और भी ऐसे गुण हैं जो उपाध्याय में होने आवश्यक हैं। (घ) उपाध्याय के पच्चीस गुण : / उपाध्याय एक साधु होने के कारण साधु के 27 गुणों का पालन तो करता ही है, इसके अतिरिक्त वह अन्य 25 गुणों से भी सम्पन्न होता है। आगमों में उपाध्याय के इन गुणों की गणना दो प्रकार से दृष्टिगोचर होती है। उपाध्याय के इन पच्चीस गुणों की प्रथम पद्धति में वह मन, वचन और काय की चंचलता को वश में करता हुआद्वादशांग काअध्येता और ज्ञाता होता है। वह करणसप्तति एंव चरणसप्तति से युक्त होता है तथा आठ प्रकार से पर्म की प्रभावना बढ़ाने वाला होता है। (1) द्वादशांग के ज्ञाता उपाध्याय : उपाध्याय 12 अंग ग्रन्थों का स्वयं अध्ययन करते हैं एंव दूसरे साधु-साध्वियों को भी पढ़ाते हैं। बारह ग्रन्थ निम्न प्रकार हैं।' तिवासपरियाए समणे निग्गंथेआयारकुसले, संजमकुसले, पवयणकुसले, पण्णत्तिकुसले, संगहकुसले, उवग्गहकुसले, अक्खयायारे, अभिन्नायारे, असबलायारे, असंकिलिट्ठायारचित्त, बहुस्सए, बभागमे, जहण्णेणं आयारकप्पधरे, कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। व्यवहारसूत्र, 3.3 बारसंगविऊ बुद्धा करण-चरण जुओ। पभवणा-जोगनिग्गहो उवज्झाय गुणं वन्दे / / दे०-जैन तत्त्वकलिका, पृ० 202. पा०टि०१ 3. द्वादशांग की विस्तृत जानकारी के लिए दे०-(मालवणिया तथा मेहता), जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१