________________ पञ्चम परिच्छेद उपाध्याय परमेष्ठी आराध्य एवं पूज्य चतुर्थ परमेष्ठी उपाध्याय हैं / उपाध्याय परमेष्ठी भी आचार्य परमेष्ठी ही की तरह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं गौरवशाली हैं। जिस प्रकार संघ में चारित्र की साधना के लिए आचार्य को प्रथम स्थान दिया गया है, उसी प्रकार ज्ञान की साधना के लिए संघ में उपाध्याय का द्वितीय स्थान है। जैन आगमों एवं उनके उत्तरवर्ती वाङ्मय में उपाध्याय के विषय में अत्यधिक मूल्यवान् सन्दर्भ प्राप्त होते हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि उपाध्याय भी जैन परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। (क) उपाध्याय की गरिमा : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के साधन हैं।' यहाँ चारित्र के समान ही ज्ञान की साधना का भी मोक्ष की उपलब्धि में प्रामुख्य है। यदि साधक के जीवन में ज्ञान का प्रकाश नहीं है तो वह चारित्र का पालन भी सम्यक् रूप से नहीं कर सकता कारण कि अन्धकार से घिरे हुए साधक को न तो हेयोपादेय का विवेक ही रहता है और न ही उसे संसार और मोक्षमार्ग के पृथक्करण का ज्ञान ही होता है। इसके साथ ही वह धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, उत्थान-पतन तथा साधन एवं साध्य इत्यादि का भी ठीक से विश्लेषण नहीं कर सकता। अतः मुमुक्षु साधक को ज्ञान का प्रकाश पाना अत्यन्त आवश्यक है। यथार्थज्ञान का प्रकाश होने पर ही वह स्व एवं पर कल्याण में तत्पर हो सकता है। प्रकृष्ट ज्ञानी : परमगुरु उपाध्याय धर्म-संघ के साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका वर्ग में ज्ञान का प्रकाश करते हैं। वे अपने निर्मल ज्ञान से अज्ञानान्ध व्यक्तियों को ज्ञानरूपी नेत्र प्रदान करते हैं। स्वयं शास्त्रों को पढ़ना और संघ के ज्ञान-पिपासु साधु वर्ग को पढ़ना उपाध्याय का ही कर्तव्य है। बुद्धिबल सम्पन्न : उपाध्याय अति प्रकृष्ट प्रज्ञा वाले होते हैं। वे ही जीवन की रहस्यपूर्ण