________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (अ) दिव्यध्वनि के पैंतीस अतिशय : __समवायांगसूत्र में तीर्थकर की दिव्यध्वनि के पैंतीस अतिशयों की चर्चा की गई है परन्तु वे अतिशय कौन-कौन से हैं इस विषय में नहीं बतलाया गया / वृत्तिकार ने इनका वर्णन अवश्य किया है जो निम्न प्रकार है। (1) संस्कारत्व-वचनों का संस्कारयुक्तअर्थात् व्याकरण-सम्मत होना / (2) उदात्तत्व-ध्वनि का उच्च स्वर से परिपूर्ण होना। (3) उपचारोपेत्व-ग्राम्यता से विरहित होना। (4) गम्भीरशब्दत्व-मेघ के समान गम्भीर शब्दों से युक्त होना। (5) अनुनादित्व-प्रत्येक शब्द का यथार्थ उच्चारण से युक्त होना / (6) दक्षिणत्व-वचनों का निश्छल और सरल होना / (7) उपनीतरागत्व-मालकोश आदि रागों से युक्त होना। (8) महार्थत्व-वचनों का महान् अर्थ से गर्भित होना। (6) अव्याहतपौर्वापर्यत्व-पूर्वापर अविरोधी वाक्य वाला होना / (10) शिष्टत्व-वचनों का शिष्टता से युक्त होना। (11) असन्दिग्धत्व-सन्देहरहित निश्चित अर्थ का प्रतिपादक होना। (12) अपहृतान्योत्तरत्व-अन्य पुरुषों के दोषों को प्रकाशित करने वाला 1. पणीती / सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता। समवाओ, 35.1 2. सत्यवः ।तिशया आगमे न दृष्टाः एते तु ग्रन्थान्तरदृष्टाः सम्भाविताः, वचनं हि गुण विकाव्यं तद्यथा-संस्कारवत् 1, उदात्तं 2, उपचारोपेत 3. गम्भीरशब्द 4, 5 दि 5, दक्षिणं 6, उपनीतरागं 7, महार्थं 8, अव्याहतपौर्वापर्यं 6, शिष्टं 10... दिग्धं 11, अपहृतान्योत्तरं 12, हृदयग्राहि 13, देशकालाव्यतीत १४.तत्त्वानुरूप 16. अपरमर्मबिद्धं 20, अर्थधर्माभ्यासानपेत 21. उदारं २२.परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्त 23. उपगतश्लाघं 24, अनपनीतं २५,उगादिताच्छिन्नकौतूहलं 26, अद्भुतं २७.अनतिविलम्बितं 28. विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविमुक्तं 26. अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रं ३०,आहितविशेषं 31, साकारं 32, सत्त्वपरिग्रह 33. अपरिरवेदितं 34, अव्युच्छेदं ३५.चेति वचनं महानुभावैर्वक्तव्यमिति सनवायांगवृत्ति, पत्र 56-60