________________ 138 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (2) विनय का व्यवहार : आचार्य को सबके साथ विनयपूर्वक व्यवहार करना चाहिए / विनय चार प्रकार की बतलायी गई है। (क) आचारविनय: मुनियों का मोक्ष के लिए जो ज्ञानाचार आदि अनुष्ठान है, उसका सिखलाना आचार विनय है। (ख) श्रुतविनय : मुनियों को आगम का सिखलाना श्रुतविनय है। (ग) विक्षेपणाविनय : जीवों को मिथ्यात्व आदि दुर्गुणों से हटाकर सम्यक्त्व आदि धर्म में स्थापन करना विक्षेपणाविनय है। (घ) दोषनिर्घातनविनय : जिससे क्रोध आदि दोषों का निर्घातन-निवारण हो वह दोषनिर्घातन विनय हैं / आचार्य उक्त चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति द्वारा शिष्य को विनयशील बनाकर ऋणमुक्त हो जाते हैं। 3. गुरुपूजा: आचार्य को उन सभी मुनियों का पूजा -सत्कार करना चाहिए जो दीक्षा में बड़े हों या अध्ययन कराने वाले गुरु हैं। 4. शैक्षबहुमान : शिक्षा ग्रहण करने वाले और नवदीक्षित साधुओं का भी उचित सम्मान करना चाहिए। 5. दानप्रतिश्रद्धावृद्धिः आचार्य को चाहिए कि वह दान के प्रति दाता की श्रद्धा को बढ़ावे / 6. बुद्धिबलवर्द्धनः __ आचार्य का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने शिष्यों की बुद्धि तथा आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ावे / (ज) आचार्य की चतुर्विध विशिष्ट क्रिया: पूर्वोक्त छह कर्तव्यों के अतिरिक्त आचार्य की चार विशिष्ट क्रियाएं और भी हैं। इन्हें आचार्य की चतुर्विध शक्तियाँ समझना चाहिए / ये निम्नोक्त हैं।१. आयरियों अन्तेवासीइमाएचउविहाए विणयपडिवत्तीए विणइता भवइ निरणत्तं गच्छइ,तजहाँ-- (1) आयारविणएणं, (2) सुयविणएणं, (3) विक्खेवणाविणएणं. (4) दोसनिग्घायणविणएणं। दशा०४.६ 2. विस्तार के लिए दे०-दशा० 4.6-13