________________ 140 जैन दर्शन में पञ्च परमेडी से दी गई शिक्षा को नहीं मानता है, तब आचार्य उसे कठोर वाक्यों से शिक्षा दे तथा उसे बार-बार प्रेरित करे / जो आचार्य विधिपूर्वक प्रेरणा देता रहता है, वह आचार्य धन्य है, पुण्यवान् है, वही मोक्ष-प्रदान कराने वाला बन्धु है।' वस्तुतः आचार्य की इच्छाआत्मशुद्धि करने की होती है। आचार्य उपयुक्त चारों क्रियाएं रागद्वेष -रहित होकर ही करते हैं। (झ) आचार्य तथा उपाध्याय के पाँच अतिशेष : जैन शासन में व्यवस्था की दृष्टि से आचार्य एवं उपाध्याय दो अलग-अलग पद हैं परन्तु कभी-कभी इन दोनों का कार्य एक ही व्यक्ति करते हैं / गण में आचार्य एवं उपाध्याय के पाँच अतिशेष (विशेष विधि) बतलाए गए हैं जो निम्न प्रकार हैं-२ (१)आचार्य उपाध्याय में पैरों की धूलि को यतनापूर्वक (जिससे कि दूसरों पर न गिरे) झाड़ते हुए एवं प्रमार्जित करते हुए आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते। (2) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर मल-मूत्र का त्याग तथा विशोधन करते हुए आज्ञा काअतिक्रमण नहीं करते। (3) आचार्य और उपाध्याय की इच्छा पर निर्भर है कि वे किसी साधु की सेवा करें या न करें / (4) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में एक या दो रात अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। (5) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय से बाहर एक या दो रात अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। इस प्रकार हम देखते हैं कि ये अतिशेषअपवाद रूप हैं। व्यवहार भाष्य में इनका विस्तार से वर्णन करते हुए प्रत्येक अतिशेष के उपायों का निर्देश भी किया है-- (१)पहलाअतिशेष है--बाहरसेआकर उपाश्रय में पैरों कीधूलिकोयतना-पूर्वक झाड़ना ।धूलि को यतनापूर्वक न झाड़ने से होने वाले दोष इस प्रकार हैं-- (क) प्रमार्जन के समय चरणधूलि तपस्वी आदि पर गिरने से वह कुपित होकर दूसरे गच्छ में जा सकता है। 1. विहिणा जो उ चोएइ, सुत्त अत्थं च गाहए। सोधण्णो, सो य पुण्णो य, स बंधू मोक्खदायगो।। वही, गा०२५ 2. दे०-ठाणं, 5.166