________________ आचार्य- परमेष्ठी 141 (ख) कोईराजाआदि विशेष व्यक्ति प्रव्रजित है तो उस पर धूलि गिरने से वह आचार्य को बुरा-भला कह सकता है। (ग) शैक्ष भी धूलि से स्पृष्ट होकर गण से अलग हो सकता है।' (२)दूसराअतिशेष है-उपाश्रय में मल-मूत्र काव्युत्सर्जन विशोधन करना। आचार्य-उपाध्याय शौच कर्म के लिए एक बार बाहर जाएं क्योंकि बार-बार जाने से अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं-- (क) जिस रास्ते से आचार्य आदि जाते हैं, उस रास्ते में स्थित व्यापारी आदि लोग आचार्य को देखकर खड़े होते हैं-सत्कार करते हैं, परन्तु बार-बार बाहर जाने से वे सत्कार करना छोड़ देते हैं। (ख) लोक में विशेष रूप से पूजित होते देख कोई द्वेषी व्यक्ति उनको विजन (एकान्त) में प्राप्त कर मार सकता है। (ग) अज्ञानवश घने जंगल में चले जाने से कई प्रकार की कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं। (घ) कोई वादी ऐसा प्रचार कर सकता है कि बाद के भय से आचार्य शौच के लिए चले गए हैं। (ङ) राजा आदि के बुलाने पर समय पर उपस्थित न होने के कारण राजा आदि की प्रव्रज्या या श्रावकत्व के ग्रहण में प्रतिरोध हो सकता है। (च) सूत्र और अर्थ की परिहानि हो सकती है। (3) तीसरा अतिशेष है-सेवा करने की ऐच्छिकता आचार्य का कार्य है कि वे सूत्र,अर्थ,मन्त्र, विद्या, योगशास्त्रका परावर्तन करें तथा उसका गण में प्रवर्तन करें। सेवा आदि में प्रवृत्त होने पर इन कार्यों में बाधा आ सकती है। व्यवहारभाष्यकार ने सेवा के अन्तर्गत भिक्षा प्राप्ति के लिए आचार्य के गोचरी जाने न जाने के सन्दर्भ में बहुत विस्तृत चर्चा की है। (4) चौथा अतिशेष-एक दो रात उपाश्रय में अकेले रहना। सामान्यतः आचार्य-उपाध्याय अकेले नहीं रहते / उनके साथ अन्य 1. व्यवहारभाष्य, 6.82-83 आदि 2. व्यवहारभाष्य, 6.66-105 आदि 3. वही 6.123-227