________________ सिद्ध परमेष्ठी 79 (2) अचल :चलन दो प्रकार का होता है-एक स्वाभाविक तथा दूसरा प्रायोगिक / जो चलन किसी-किसी की प्रेरणा के बिना स्वभावतः ही होता है वह स्वाभाविक चलन है। जो वायु आदि बाह्य-निमित्तों से उत्पन्न होता है, वह प्रायोगिक चलन माना जाता है। सिद्धगति में न तो स्वाभाविक चलन होता है और न ही प्रायोगिक ।इसीसे वह अचल गति कहलाती है। (3) अरुज :रुज अथवा रुजा से अभिप्राय है-पीड़ा, संताप अथवा व्याधि | जिसे इसका अभाव है वह अरुज कहलाता है। सिद्धगति में रहने वाले जीव शरीर-रहित होते है। उनको वात, पित्त और कफजन्य शारीरिक रोगों का सर्वथा अभाव होता है / कर्मरहित होने से उनमें भाव अर्थात रोगरूप, रागद्वेष एवं क्रोध आदि विकार भी नहीं होते / अतः वह सिद्धगति अरुज कहलाती है। (4) अनन्तःअन्तरहित का नाम ही अनन्त है। सिद्धगति को प्राप्त होने कीआदितो है परन्तु उसकाअन्त नहीं क्योंकि सिद्धगति सदैव विद्यमान रहती है। अतः वह अनन्त है। (5) अक्षय :क्षयरहितता ही अक्षय है। सिद्ध गति सदैव अपने स्वरूप में अवस्थित रहती है, उसका स्वरूप कभी भीक्षीण नहीं होता। सिद्धगति में स्थित जीवों की ज्ञान आदि आत्म-विभूति में किसी भी प्रकार का हास अथवा क्षय नहीं आने पाता। इससे भी यह गति अक्षय कही जाती (6) अव्याबाध :बाधा अथवा पीड़ा से रहित स्थिति का नाम अव्यादाध है। सिद्धगति में मुक्त आत्माओं को किसी भी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती और न ही वे जीव किसी दूसरे को किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचाते हैं। अत एव सिद्धगति अव्याबाध कही गई है। (7) अपुनरावृति:सिद्धगति में जो जीव एक बार चले जाते हैं, वे सदैव वहां ही रहते हैं। वे कभी भी वापिस संसार में नहीं आते / वे वहीं पर अनन्तज्ञान-दर्शनआदिआत्मगुणों मेंरमण करतेरहते हैं। अतःसिद्धगति अपुनरावृत्तिरूप मानी गई है। (घ) सिद्धों के मूल गुण : आत्मा में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य,सम्यक्त्व, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व और अगुरुलधुत्व ये आठ (स्वाभाविक) गुण माने गए हैं और ज्ञानावरण आदिआठ कर्म उपर्युक्त गुणों के अवरोधक हैं कारण कि आत्मा पर इन आठ कर्मों का आवरण पड़ जाने से ये गुण प्रकट नहीं होते, परन्तु जब आत्मा अपने पुरुषार्थ