________________ आचार्य - परमेष्ठी 121 आगे होने वाले पापाश्रव का भी निरोध करता है / इस प्रकार गुप्ति और समितियों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि गुप्ति में असत्क्रिया के निषेध की मुख्यता है और समिति में सक्रिया प्रवर्तन की मुख्यता है / इन पाँच समिति और तीन गुप्तियों को आठ प्रवचनमाताओं के नाम से भी जाना जाता है / 'प्रवचन' शब्द का अर्थ है--जिनदेव-प्रणीत सिद्धान्त और माता का अर्थ है-- माता की तरह संरक्षक | जिनदेव-प्रणीत सिद्धान्त १२अंग ग्रन्थों में समाविष्ट हैं जो कि हमारे जीवन की रक्षा करने वाले हैं अर्थात् भवसागरसेपार लगानेवाले हैं / इन समितियों एवं गुप्तियों में वह जिनेन्द्र-कथित द्वादशांगरूप समग्र प्रवचन अतभूत है। अतः इन्हें प्रवचन माता कहना उचित ही जान पड़ता है / ये गुप्ति और समिति रूप आठ प्रवचन-माताएं महाव्रतों के रक्षण में सहायक हैं / अतः आचार्य उनको सदैव सावधानीपूर्वक धारण करते हैं / दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य के छतीस गुण : बोधपाहुड़ की टीका में आचार्य के निम्न छत्तीस गुण बतलाए गए हैं आचारवान्, श्रुताधारी, प्रायश्चित्तदाता, आसनादिद, आयापायकथी, दोषाभाषक, अस्रावक, संतोषकारी, दिगम्बर, अनुद्दिष्टभोजी, अश्ययाशनी, अराजभुक्, क्रियायुक्त, व्रतवान्, ज्येष्ठसद्गुण, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, तद्विनिषद्यक, बारह प्रकार का तप और षडावश्यक / ' इन्हीं छत्तीस गुणों को आचार्यों ने चार भागों में विभाजित कर अध्ययन किया है / वे हैं -- (अ) आचार विषयक आठ गुण, (आ) दस स्थितिकल्प, (इ)बारह तप, (उ) षडावश्यक | 1. कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ / संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ / उ०२६.५६ 2. अट्ठ पवयणमायाओ समिई गुत्ती तहेव य / पंचेव य समिईओ तओ गुत्तीओ आहिया / / इरियामासेसणादाणे उच्चारे समिई इय / मणगुत्तीवयगुत्ती कायगुत्ती य अट्ठमा / / एयाओ अट्ठ समिईओ समासेण वियाहिया / दुवालसंगं जिणक्खायं मायं जत्थ उ पवयणं / / उ० 24.1-3 आचारवान् श्रुताधारः प्रायश्चित्तासनादिदः / आयापायकथीदोषाभाषको श्रावकोऽपि च / / सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च / दिगम्बरवेष्यनुद्दिष्टभोजी शय्याशनीति च / / अराजभक क्रियायक्तो व्रतवान ज्येष्ठसदगणः / प्रतिक्रमी च षण्मासयोगी तदद्विनिषद्यकः / / द्विःषट्तपास्तथा षट् चावश्यकानि गुणा गुरोः / / बोधपाहुड़, गा० टी० 1-2 तथा मिलाइये-भग० आ०, गा०५२८