________________ 129 आचार्य- परमेष्ठी श्रमण-पर्याय वाले निर्ग्रन्थ को उपाध्याय अथवा आचार्य दोनों ही पदों पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है।' तात्पर्य यह है कि यदिअधिक दीक्षा-पर्याय वाली साध्वियों के आचार्य अथवा उपाध्याय यदि दिवंगत हो जाएं तो उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम अधिक दीक्षा पर्यायवाली है। अतः हमारे से कम दीक्षापर्याय वाले साधु के अनुशासन में हम क्यों रहें? कारण कि उनके लिए आचार्य अथवा उपाध्याय के बिना रहना नियमविरुद्ध है। इसी प्रकार का विधान साधुओं के लिए भी है। अतः उन्हें अपने से कम दीक्षापर्याय वाले श्रमण को भी आचार्य अथवा उपाध्याय के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए, यदि वह उक्त योग्यता रखता हो। (ड) द्विविध आचार्य : आगम में आचार्यों के भी भेद पाए जाते हैं कहीं तीन तो कहीं चार भेद किए गए हैं स्थानांगसूत्र में ये ही आचार्य दो प्रकार से बतलाकर चार तरह के स्वीकार किए गए हैं वे हैं-- (क) 1. कोई प्रव्राजनाचार्य होते हैं, पर वे उपस्थापनाचार्य नहीं होते। २.कोई उपस्थापनाचार्य होते हैं, तो प्रव्राजनाचार्य नहीं होते। 3. कोई प्रव्राजनाचार्य भी होते है और उपस्थापनाचार्य भी होते है। 4. कोई न प्रव्राजनाचार्य ही होते हैं और न उपस्थापनाचार्य ही होते हैं। 1. कोई उद्देशनाचार्य होते हैं, पर वाचनाचार्य नहीं होते। 2. कोई वाचनाचार्य होते हैं, पर उद्देशनाचार्य नहीं होते। 3. कोई उद्देशनाचार्य भी होते हैं और वाचनाचार्य भी होते हैं। 4. कोई न उद्देशनाचार्य ही होते हैं और न वाचनाचार्य ही होते हैं। पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सट्ठिवासपरियाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। वही,७.२० 2. वही, 3.12 3. वही, 3.11 4 ठाणं, 4.22