________________ 134 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 5. वाचना सम्पदा: शास्त्रों की वाचना देने की कुशलताअर्थात् अध्यापन-कौशल हीवाचना सम्पदा है। यही भी चार प्रकार की है -- (क) विदित्वोद्देशन : उद्देशन से अभिप्राय है--पढ़ने का आदेश देना / आचार्य शिष्य की योग्यता को देखकर ही किसी शास्त्र के पढ़ने का आदेश देता है। (ख) विदित्वा वाचना: आचार्य शिष्य की योग्यता को देखकर ही वाचना देते हैं / बिना समझा और अरुचिकर ज्ञान लाभप्रद नहीं होता है, ऐसा समझकर आचार्य आगे उसी शिष्य को वाचना देते हैं जिसने पहले दी गई वाचना को ठीक से समझ लिया है। (ग) परिनिर्वाप्य वाचना: परिकाअर्थ है-सर्वप्रकार सेऔर निर्वाप्य काअर्थ है--सन्देहरहित। आचार्य पहले दी गई वाचना को सर्वप्रकार से सन्देहरहित जानकर एवं पूर्णतः हृदयंगम कराकर ही आगे की वाचना देते हैं। (घ) अर्थनिर्यापकता: आचार्य शिष्य को अर्थवाचना इस प्रकार देते हैं कि शब्द थोड़े होने पर भी अर्थ गम्भीर एवं व्यापक हों। यह आचार्य का अर्थनिर्यापकता नामक गुण है। 6. मति सम्पदा: मति सम्पदा से अभिप्राय है--आचार्य की बुद्धि का तीक्ष्ण, प्रखर और तत्कालग्रहणशील होना। यह भी चार प्रकार की बतलायी गई है। (क) अवग्रहमतिसम्पदा: देखी, सुनी, सूंघी, चखी और स्पर्श की हुई वस्तु के गुणों को सामान्य रूप से ग्रहण कर लेना अवग्रहमति सम्पदा है। (ख) ईहामतिसम्पदा : ईहासे अभिप्राय है--निश्चय विशेष की जिझासाअथवा सामान्य रूप / से ग्रहण की हुई वस्तु के विषय में पुनः तर्क-वितर्क उत्पन्न करना / जैसे 1. वायणासंपया धउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-१-विइय उद्दिसइ, २.विइय वाएइ. 3. परिनिव्वाविय वाएइ.४. अत्थनिज्जावययावि भवइ। से तं वायणासंपया। दशा०४.५ 2. मइसंपया चउव्विहा पण्णत्ता,तं जहा–१.उग्गहमइसपया, २.ईहमइसंपया ३.अवायमइसंपया, ४.धारणामइसंपया। दशा०४.६