________________ 133 आचार्य-परमेष्ठी स्थिर होता है कि वह तप, संयम, विहार एवं उपकार इत्यादि कार्यों में नहीं थकता है। यही उनकी स्थिर संहननता सम्पत् है। (घ) बहुप्रतिपूर्णेन्द्रियता : आचार्य का पाँचों इन्द्रियों से पूर्ण एवं स्वस्थ होनाही बहु-प्रतिपूणेन्द्रियता है। पूर्ण इन्द्रियों वाला ही परमार्थ का साधक हो सकता है। 4. वचनसम्पदा: वचन-कौशल ही वचनसम्पदा है। यह भी चार प्रकार की बतलाई गई है।-- (क) आदेयवचनताः जिसके वचन को श्रद्धायुक्त होने से सभी (वादी, प्रतिवादी) ग्रहण करते हों वह आदेयवचन कहा जाता है। आचार्य प्रशस्त वक्ता होने से उनके वचन सभी के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, यही उनकी आदेयवचनतासम्पत् है। (ख) मधुरवचनता: आचार्य के वचनों में किसी प्रकार की कटुता, तुच्छताआदि नहीं होती। वे गम्भीरता एवं मधुरता से युक्त वाणी बोलते हैं जिससे सभी को प्रसन्नता मिलती है। (ग) अनिश्रितवचनता : आचार्य के वचन समभाव एवं माध्यस्थ्य भाव से युक्त होते हैं। वयवहारभाष्य में इसके दोअर्थ किए गए हैं--(१) जो वचनक्रोधादि से उत्पन्न न हों और (2) जो वचन रागद्वेष युक्त न हों। इस प्रकार के गुण वाला होना ही अनिश्रितवचनता है। (घ) असंदिग्धवचनता: आचार्य के वचन संदेहरहित होते हैं। व्यवहारभाष्य में सन्दिग्ध वचन के तीन अर्थ किए गए हैं--(१) अव्यक्तवचन, (2) अस्पष्ट अर्थ वाला वचन और (3) अनेक अर्थोंवाला वचन / आचार्य के वचन इन सभी दोषों से रहित होते हैं। यही उनकी असंदिग्धवचनता है। 1.- वयणसंपया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-आदेयवयणयावि भवइ, महुरवयणयावि भवइ, अणिस्सवयणयावि भवइ, असंदिद्धवयणयाविभवइ / से तं वयणसंपया। दशा० 4.4 2. निस्सिय कोहाईहिं अहवावीरागदोसेहिं / व्यवहारभाष्य 10.268 3. अव्वत्तं अफुडत्थं अत्थ बहुत्ता व होति संदिद्धं। वही, 10.266