________________ ___131 आचार्य- परमेष्ठी 131 (4) वचन-सम्पदा -वचन-कौशल (5) वाचना-सम्पदा -अध्यापन-पटुता (6) मति-सम्पदा -बुद्धि-कौशल (7) प्रयोग-सम्पदा -वाद-कौशल .. (8) संग्रह-परिज्ञा --संघ-व्यवस्था में निपुणता। 1. आचारसम्पदा : पूर्वोक्त ज्ञान आदि पाँच आचारों का पालन करना आचार सम्पदा है। यह भी चतुर्विध स्वीकार की गई है - (क) संयमधुवयोगयुक्तता : अपने ग्रहण किए हुए संयम के भावों में योगों को सदैव स्थिर रखना अथवा चारित्र में सदा समाधियुक्त होना संयम ध्रुवयोगयुक्तता आचार-सम्पत् है। (ख) असंप्रगृहीतात्माः जिसकीआत्माअसंप्रगृहीत अर्थात् अहंकाररहित है, वह असंप्रगृहीतात्मा आचार सम्पत् से सम्पन्न होते हैं। (ग) अनियतवृत्तिता : अनियतवृत्तिता का अर्थ है-निरन्तर विहार करना |आचार्य एक स्थान पर अधिक समय न रहते हुए देश-प्रदेश में परोपकार की दृष्टि से अप्रतिबद्ध होकर विचरण करते हैं। इसीलिए आचार्य अनियतवृत्तितासम्पत् से युक्त होते हैं। (घ) वृद्धशीलताः जो वृद्ध हैं-दीक्षा में बड़े हैं, उनके समान शील, संयम, नियम, चारित्र आदि वाला होना तथा विकारहित स्वभाव धारण करना, यही आचार्य की वृद्धशीलता सम्पत् है। 2. श्रुतसम्पदा: शास्त्रों के अर्थ का ज्ञान होनाआचार्य की श्रुत-सम्पदा है / यह भी चार प्रकार की होती है। 1. आयारसंपया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा 1. संजम-धुव-जोगजुत्तयावि भवइ, 2. असंपग्गहियअप्पया, 3. अणियतवित्तिया, 4. बुड्ढ-सीलयावि भवइ / से तं आयारसंपया। दशा० 4.3 2. सुयसंपया चउव्विहा पण्णत्तं तं जहा बहुस्सुययावि भवइ, परिचियसुययावि भवइ, विचित्तसुयथावि भवइ, घोसविसुद्धिकारययावि भवइ / से तं सुयसंपया। दशा० 44