________________ 130 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी जो केवल प्रव्रज्जा देता है, वह प्रव्राजनाचार्य होता है और जो केवल उपस्थापना (महाव्रतों में आरोपित करना) करता है, वह उपस्थापना आचार्य होता है। कुछ प्रव्रज्जा एंव उपस्थापना रूप दोनों ही प्रकार का कार्य करते हैं और कुछ दोनों ही प्रकार का कार्य नहीं भी करते हैं। इसी प्रकार जो केवल उद्देशन (पढ़ने काआदेश) देता है, वह उद्देशनाचार्य होता है और जो केवल वाचना देता है, वह वाचनाचार्य होता है। कुछ उद्देशन एंव वाचना रूप दोनों ही प्रकार का कार्य करते हैं तथा कुछ ऐसे भी होते हैं जो दोनों ही प्रकार का कार्य नहीं भी करते हैं। यह आवश्यक नहीं किये सब अलग-अलग व्यक्तिही हों। व्यवहारभाष्य में बतलाया गया है कि आचार्य तीन प्रकार के होते हैं-१) धर्माचार्य, (2) प्रव्रजनाचार्य और (3) उपस्थापनाचार्य / एक ही व्यक्तिधर्माचार्य,प्रव्रजनाचार्य और उपस्थापनाचार्य भी हो सकता है। इसी प्रकार एक ही व्यक्ति धर्माचार्य, उद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य भी हो सकता है। (च) आचार्य सम्पदा-अष्टविध : गृहस्थ के पास धन-धान्य आदि द्रव्य-सम्पत् होती है जिससे वह शोभा पाता है, किन्तु उसकी यह द्रव्य सम्पत् चिरस्थायी नहीं, वह समय आने पर नष्ट हो जाती है परन्तुएक सम्पत्ति ऐसी भी है जो कभी नष्ट नहीं होतीऔर वह हैं भाव-सम्पत् / भाव-सम्पत् सदैव आत्मा के साथ रहती है, वह आत्मा के समान हीअनश्वर हैं। अतएवआचार्य इसीभाव-सम्पत् से हमेशा सुशोभित होते रहते हैं। आचार्य की यह भाव-सम्पत् भी आठ प्रकार की बतलायी गई है। इसे गणिसम्पदा भी कहते हैं जो इस प्रकार है (1) आचार-सम्पदा -संयम की समृद्धि (2) श्रुत-सम्पदा -श्रुत की समृद्धि (3) शरीर-सम्पदा -शरीर-सौन्दर्य 1. धम्मायरि पव्वायण, तहय उठावणा गुरु तइओ। कोइ तिहिं संपन्नो, दोहिं वि एक्केक्कएण वा।। व्यवहारभाष्य 10.41 2. अट्ठविहा गणिसम्पया पण्णत्ता, तं जहा आयारसंपया, सुयसंपया, सरीरसंपया, वयणसंपया, वायणा संपया, मइ संपया, पयोग संपया, संगाहपरिणामा अट्ठमा। ठाणं,८.१५ तथा दशा०४.२